Sunday, September 6, 2009

Paheli

फिर पहेली बन खड़े हैं रिक्त मस्तिष्कों के झुण्ड
नयनों में अंगार लेकर ह्रदय में अग्नि कुंद

चल पड़ी है भीड़ पीछे चल पड़े सभी
लौट के आयेगे वहीँ चले थें जहाँ से इक दिन कभी ..

क्या है करना ? कौन जाने ?
क्यूँ है करना ? कौन जाने ?
स्वार्थ के इस दो राहे पर ज्ञान है क्यूँ मौन जाने ?

स्तभ्ध कुंठित मौन मुझको बस है रहना
भावनाएं हैं, है इनका काम बहना ..

चल पड़ी फिर कागज पे कलम
कह कर कुछ, फिर चुपसो गए हम.

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...