Wednesday, December 30, 2009

आकाश की अवहेलना

दिसम्बर की सर्द दुपहरी में
धुप में कुरसी लगाये
आकाश चूमती इक पतंग पे टक-टकी बांधे बैठा हूँ

दूर से आते चिड़ियों की चेह्कन
गाड़ियों की आवाजें
कुछ दूर बैठी महिलाओं की बातें
और फिर से पतंग की सर सर

धुप का बायीं गाल को सहलाना
और आँखों का स्वयं ही बंद हो जाना
खो जाना कुछ खयालों में
पतंग सा लहराना

उस तडपती पतंग के पीछे किसी
अद्रिशय बालक और डोर का सवार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
कागज़ पर पड़ी इस कविता के पीछे
इक भावुक मन का स्वार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
अब पतंग के जीवन पर और क्या लिखों
उसका उड़ना निरर्थक सा लगता है ...
स्वार्थ और उससे जुड़े इन रंगों का आकाश चूमना
आकाश की अवहेलना नही तो और क्या है ?...

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...