Thursday, December 31, 2009

मधुशाला

इक अंतिम गीत मैं लिख लूं, फिर चलता हूँ मैं साकी
मैं तेरी है प्यारी मुझको, पर अब भी मुझमें है कुछ मैं बाकी

अपनी मैं मैं जरा पिला दूं, खाली सबके हैं प्याले
कुछ को पीने की ख्वाहिश है, पर होटों पे हैं ताले
ये कैसे हैं पीने वाले, जरा देख तो तू साकी
मद-डगमग न कोई पग है, हैं सबके होश बाकी

जरा मैं लिख लूं के अब भी दम है , माना के अब स्याही कम है
जोड़ रहा दो शब्द मैं ताकि
इक के भी रह ना जायें होश बाकी .......

आया था तू द्वार मेरे, बैठा जो तू दो पल साकी
कैसे करूँ अपमान मैं तेरा, चलता हूँ मैं तू चल साकी

छोड़ चलूँ मैं प्याला अपना, यहीं छोड़ता हूँ हाला
दूर देस है जाना हमको, दूर है तेरी मधुशाला
बंद करूँ क्यूँ अब कमरे को, है यहाँ कहाँ अब कुछ बाकी
मैं तेरी खींचे है मुझको, अब ले चल भी तू एय साकी .....

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...