Sunday, December 27, 2009

क्यूँ इक भी कविता अब तक दिल को न लुभा पाई है ?

क्यूँ कवियों के इस जमघट पे इक खामोशइ सी छायी है
क्यूँ इक भी कविता अब तक दिल को न लुभा पाई है ?

कहाँ गयी वो लेखन शैली
कहाँ है वो रास विहार
कहाँ गए वो कवी महाजन
कहाँ गया वो श्रींगार


मेरी मानो चुप्पी तोड़ो
आओ बैठो शब्दों को जोड़ो
इक टूटी सी कविता बनाते हैं
मिल कर्र इक स्वर में उसे
फिर प्रेम से गाते हैं

तेरी कविता मेरी कविता
तुझसे अच्छी मेरी कविता

कविता तो बस आखर सरिता
किसकी कविता किसकी सरिता ?

आओ इस फुलवारी में
शब्ब्दों की इस क्यारी में
नए फूलों को उगते हैं
आओ मिल कर
गीत प्रेम का गाते हैं

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...