Friday, December 31, 2010

ये शब्द नहीं आईने हैं

शोर
मज़ाक
ठठोल
झूठ
आडम्बर
स्वार्थ
ये शब्द नहीं आईने हैं
ऐ इतिहास पड़ने वालों
अपना इतिहास क्या ये होगा ?

भूख
शोषण
क्रूरता
कमजोरी
धोखा
ये शब्द नहीं आईने हैं
ऐ कविमन कविवर जानो
अगली कविता में क्या होगा ?

अंधी भीड़
हाथ उठाये नाचते लोग
तेज़ रफ़्तार गाड़ियां
पर्दों पर चमचमाते सितारे
जीवन से दूर काल्पनिक एक दुनिया
पैसे की हवस
ज्ञान का इक दो राहे पे
असमंजस में पड़ जाना
दरत हूँ मैं...
हाँ! डरता हूँ मैं
ऐ धरती के प्यारे बच्चों
की अगली मुठ्ठी में क्या होगा ? (*नन्हे मुन्हे बचों तेरी मुठ्ठी में क्या है...)

बड़ा शहर या कारगर
अपनी जरूरतें या आवारा मन
दासत्व स्वीकार कर चुकी
ठंढी पड़ी धमनियां
डरता हूँ
हाँ! डरता हूँ मैं
ऐ प्यारे मेरे लोगों
के आगे न जाने क्या होगा?

मूक
संवेदनहीन
कीड़े
ये शब्द नहीं आईने हैं
ऐ ज़मीन पर रेंगने वाले
तेरा न जानेक या होगा ?

Thursday, December 30, 2010

यूँही मुझको चुप रहने की आदत पड़ी पुरानी है

यूँही मुझको चुप रहने की आदत पड़ी पुरानी है
बात बात पे हंस देता हूँ आँखों में तो पानी है

चुन चुन कर के लाया तिनके पिरो पिरो बुनता रिश्ते
अब के मौसम ऐसा लागे दुनिया मेरी लुट जानी है

माँ का आँचल ऐसा छूटा रूठ गयीं मुझसे नींदें
सारा दिन फिर दुनिया-दारी रोज़ी रोटी कमानी है

रुक रुक करके पीछे देखूं आगे की मैं क्या जाऊं
नए साल में कुछ तो होगा, आस वही पुरानी है

शब्दों की इस माला में मेरी कुछ भावों की डोरी है
दर लगता है साथ में मेरे शायद ये जल जानी है

मैं न जाऊं कब डूबेगी मेरे ख्वाबों की कश्ती
गाल हाथ धरे देख रहा हूँ रात बड़ी तूफानी है








Ckh









आप इसे निदा फाजली जी की लिखी " मुह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन .." की धुन गा के देख सकते हैं...बहर में पूरी तरेह से तो नहीं है ...

Wednesday, December 29, 2010

याद नहीं कुछ याद नहीं

गो धूलि बेला आई कब थी
याद नहीं कुछ याद नहीं
कब जागा था पहली किरण संग
याद नहीं कुछ याद नहीं

अरसा बीता गौरिया संग
मिट्टी से बिनना दाने वाने
बैठ दुपहरी छाँव में तरु की
सुस्ताना चप्पल रख सिरहाने
कब चालीसा गयी थी मन से
याद नहीं कुछ याद नहीं

भोला सा तो था गाँव मेरा
भोले भाले थें लोग सभी
कब ये मौसम ऐसे बिगाड़ा
गैर हुए कब लोग सभी
कब खुल कर थहाके सुने थें
याद नहीं कुछ याद नहीं

Thursday, December 23, 2010

बात उसके समझ न आई कभी

इक सहरांव था मेरे सीने में

पड़ी बंजर इक पथरीली ज़मीन थी जज्बातों की

और था सैलाब अश्कों का मेरी आँखों में

जो न छलका इक भी अश्क मेरी पलकों से

क्यूँ न समझा वो मेरी मजबूरी ....

न करता वो मुझको समझने की जो गलती

तो शायद

बात समझ उसको आजाती

जुगनू कब ख़ुशी स मुट्ठी में बंद हुआ करते हैं

हाथ फैलाकर कभी आँख बंद करके देखो तो

वो तो अक्सर हथेलियाँ दूंदते हैं सुस्ताने को ...

वो न समझा मेरी मजबूरी

बात उसके समझ न आई कभी

मई तो जुगनू हूँ

अन्धीरे से है पहचान मेरी

वो खामोखां उजाले करता था

का मिला हूँ मैं उजालों में

बात उसको कोई समझाए ज़रा

Saturday, December 18, 2010

क्यूँ भागूं

इक मीठी सी नींद सुला जा
ऐसी के अब ना जाऊं
जिन सपनों का अर्थ नहीं कुछ
उनके पीछे क्यूँ भागूं

Friday, December 17, 2010

इक उम्मीद

मेरी कलम से निकले हर्फ़
तेरे होटों पे जो आयें
इक उम्मीद बंधी दिल में
के शायद अब मैं जी जाऊं

निकलता था कुशाँ से मैं
झुकाकर सर को कुछ ऐसे
के कोई रोककर मुझको
कहीं ये पूछ न बैठे
बताओ नाम क्या और
किधर निकले हो तुम घर से

बड़ी कमजोर तबीयत थी
बड़ा नाजुक था दिल मेरा
मगर कल रात महफ़िल में
जो तुमने गीत मेरे गाये
इक उम्मीद बंधी दिल में
के शायद अब मैं जी जाऊं

Thursday, December 16, 2010

और नया भी क्या होगा

नया साल, पुराने ख़त, तेरी यादें

और नया भी क्या होगा
और नया भी क्या होगा

वही ठंढी, फिजा बरहम, वही सौतन, अँधेरी रात

और नया भी क्या होगा
और नया भी क्या होगा

दबी आवाज़ में कहता हूँ
मैं खुद से ही चुप रहने को
मिटा देंगे ये सुनने वाले

और नया भी क्या होगा

दीवाना मैं हूँ ख़्वाबों का
हकीकत में कब रखा कुछ था
वही बातें दुनिया दारी की
वही जिद-ओ-जहद जिन्दा रहने की

और नया भी क्या होगा
और नया भी क्या होगा

चुभा है शूल सीने में मगर तुम मुस्कराते हो

चुभा है शूल सीने में मगर तुम मुस्कराते हो

बड़े नाजुक हैं ये रिश्ते, इन्हें कैसे निभाते हो



कहो न यार ऐसे भी संजीदा तो नहीं थे तुम

हमी से रोज़ की बातें, हमी से बात छुपाते हो



कहाँ ढूँढूं मैं जाकर के तेरे हिस्से की खुशियाँ अब

मरीज़-ऐ-दिल की हालत भी कहाँ खुलकर बताते हो



पहले दरिया किनारे तुम लिखा करते थे ग़ज़लों को

मगर अब वहां बैठे कागज़ की नावें बहाते हो



कभी तुमने न देखा दर मालिक का लड़कपन में

उम्र गुजरी तो याद आया अब मस्जिद रोज़ जाते हो

Monday, December 13, 2010

कभी कोई नही मेरा, कभी कायनात मेरी है

कभी कोई नही मेरा, कभी कायनात मेरी है
अजब हालत हैं अपने , अलग ही बात मेरी है

अजब है खेल ये यारा दो चार मुहरों का
उधर गर शय कहीं तेरी, इधर फिर मात मेरी है

सुबो से शाम तक मैंने फकत मेहमाँ नवाजी की
करूँ अब खुद से कुछ बातें, ये सारी रात मेरी है

सफीनों को समंदर में है इक दिन समां जाना
यहाँ है आज मेरी बारी, बड़ी खुश बारात मेरी है

सऊबत का असर ऐसा हुआ अंदाज़ पर मेरे
हर शख्स कहे शायर, ग़ज़ल हर बात मेरी है

Sunday, December 12, 2010

साथ जिनका मिला एक पल के लिए

साथ जिनका मिला एक पल के लिए

दे गए वो निशानियाँ कल के लिए



पास मेरे है तू आज है ye यकीन

ae खुदा शुक्रिया हर कँवल के लिए



यूँ तो तैयार है ताज ख़्वाबों की ईंट पर

मुमताज चाहिए बस इस महल के लिए



हमको कब थी खबर आप यूँ याद आयेंगे

आपका शुक्रिया इस गज़ल के लिए

आज की रात

लिख चल दिल की बात

खुल कर मेरे यार

आज की रात

क्यूँ न खो जाऊं कहीं

श्याही संग

बन कर जज़्बात

आज की रात



ऐसे तो मुझको nahi

होता कभी

आज हुआ जाने क्यूँ

ढल जा शब्दों में

बन कर कोई बात

आज की रात



कलि कलि गाये तेरा

गीत नया

मुस्का कर यार

ले आ

भावों की बारात

आज की रात

Friday, December 10, 2010

भोले लोग

मारो!मारो! नहीं तो काट लेगा
अरे वो सांप है!
जहरीला है काट लेगा!
पताक! चटाक ! धाड़ धुम !
और यूँ
मारा गया एक और सांप...
मेरे शहर के लोगों को
जहर से सख्त नफरत है
और जहरीले जीवों को
फूटी आँख नहीं देखते ये समझदार लोग
बजबजाती भिनभिनाती
गन्दी नालियां
सरकार साफ नहीं करतीं
वरना इस शहर में तो गन्दगी का नामों निशाँ न होता
वो तो ठेकेदार चोर था
और नेता बिमान
वरना सूरत ही कुछ और होती इस शहर की

Monday, December 6, 2010

आज मुझे कुछ याद आई

इक छुई मुई सी नज़्म लिखी
और लिख मैं भूल गया
आज मुझे कुछ याद आई
आज मुझे कुछ याद आई

कुछ था जीवन पर शायद
या प्रेम की थीं कुछ बातें
आंचन रेशम की साडी का
हर डोर जीवन के नाते
आज मुझे कुछ याद आई

डर था उसको गली में बैठे
कुछ आवारा लड़कों का
उसके घर तक जाती वो
सुनसान अँधेरी सडकों का
आज मुझे कुछ याद आई

पैदल पैदल धीरे धीरे
चुप-चाप चली वो जाती थी
कुछ कम कम होने का मुझको
अहसास पल पल कराती थी
आज मुझे कुछ याद आई

Monday, November 29, 2010

फूल खुशबू के लिये बागों को फिजायें चाहियें

फूल खुशबू के लिये बागों को फिजायें चाहियें
मुझको हंसने के लिए किसकी रजायें चाहियें

लडखडाता रह न जाऊं मैं ठोकरें खाता हुआ
थाम लें जो मुझको अब आज वो बाहें चाहियें

घुटता है दम कैफियत है सांस भारी हो रही
जिंदगी जीने की खातिर ताज़ी हवायें चाहियें

भर न पायें जख्म मेरे याद कर के बीती बात
याद करके भूल जाने की अदायें चाहियें

कसते हैं जो तंज सूरत पर मेरी इस शहर में
ऐ खुदा उनको मेरी माँ सी निगाहें चाहियें




राजयें*: is word ki meaning confirm karni hai mujhe....

Sunday, November 28, 2010

न कहीं रहा कोई जिसे हाल-ऐ-दिल कहूं

न कहीं रहा कोई जिसे हाल-ऐ-दिल कहूं
हुआ क़त्ल मैं पर किसे आज कातिल कहूं

मेरी सांस जब रुकी वो था बस एक मेरे करीब
इस शाजिश-ऐ-बद में उसे कैसे शामिल कहूं

मिला जख्म दर्द-ओ-गम मुझे उसके शहर से
अब सोचता मैं के क्या उल्फत-ऐ-हासिल कहूं

यहाँ क्या है गर्द के सिवा हर चीज है मामूली
जिया जाए किसके लिए किसे जीने के काबिल कहूं

वो तो मचलता रहा मिलने को मैं ही नहीं गया
मैं उसे लहर कहूं 'चक्रेश' को साहिल कहूं

Tuesday, November 23, 2010

ये तो धड़कन का कसूर है जो जिन्दा होने का एहद कराती है

ये तो धड़कन का कसूर है जो जिन्दा होने का एहद कराती है
मौत आये मुझे बरसो गुजारें बस यूँही सांस आती जाती है

सैकड़ों खंजर हैं मेरी छाती में, खूँ का कतरा नहीं है कोई मगर;
काश समझ पाते ये लोग यहाँ, कलम स्याही कहाँ से लाती है ?

बैठे हैं यहाँ आज मेरी महफ़िल में, इस शहर के समझदार कई
हर शेर पे बहोत खूब कहते हैं, जाने कैसे इन्हें हर बात समझ आती है

मेरा साया मुझको हर शाम एक वही पुराना सवाल दे जाता है
सारा दिन मुट्ठी कस कर रखी थी बंद मैंने ये रेत कैसे सरक जाती है

हर शख्स यहाँ सीते आया है घावों को, रफू किये हैं जाने कितने
'चक्रेश' देखना कैसे जिंदगी ये तुझको, एक दिन दरजी बनाती है

Wednesday, November 17, 2010

मैं पूछता रहा उससे के

मैं पूछता रहा उससे के दरिया-ऐ-हयात गहरा तो नहीं

जूँ न रेंगी उसके कानो पे, नाखुदा कहीं बेहरा तो नहीं?


गहराई वाली जगहों पे दरिया में हलचल कम होती है

मैं पत्थर लेकर देख रहा हूँ, के कहीं पानी ठहरा तो नहीं


लोगों के कन्धों से ऊपर अब सब काला काला दिखता है

किस जुबाँ ये सब लिखा है, फारसी में हर चेहरा तो नहीं


जाने कितने ठुकरायें हैं मैंने, इस आज़ादी की चाहत में

हर ताज देख कर डरता हूँ, कम्बखत कहीं सेहरा तो नहीं



झूठ मूठ का क्यूँ हँसते हो ये मुखोटे उतार फेंको यारों

आईनों की सुनते हो क्यूँ, बदसूरत कोई चेहरा तो नहीं



बैठा है संजीदा सा 'चक्रेश', यहाँ हर महफ़िल में

चुप चुप सा क्यूँ वो रहता है कुछ कहने पे पेहरा तो नहीं

Sunday, November 14, 2010

one liners

"मैं नहीं था तो भला वो कौन था जो लिख गया,
के मेरे पहले भी कोई था मेरे जैसा कहीं ........... "

ख्वाब बुनिय ख्वाब में ख़्वाबों ही की जुबाँ...


सोचूँ के न सोचूँ के सोचूँ तो कुछ होता भी नहीं ...

अब के सोऊँ तो न जगाने आना कोई
कई रातों का जागा हुआ हूँ मैं
तुमसा ही मैं भी एक कैदी हूँ यारों
अपनी कैद से भागा हुआ हूँ मैं





मैं हैरान था तो सब थें हैराँ मुझसे
सब थें हैराँ मुझसे सो मैं हैराँ था

Thursday, November 11, 2010

इन दरख्तों से आती आवाजों के पीछे

=.== .== === .==, .===== .=====
इन दरख्तों से आती आवाजों के पीछे, कहीं कोई पिन्हा कहानी तो होगी
गौर दे कर कभी खामोशी को सुनिये, कहीं कोई लुटती जवानी तो होगी

अब सियासत को रुसवा रियाया करे क्यूँ,अगर सोचिये तो जी हम भी क्या कम हैं
खुद परस्ती के चोलों में जो खोया अदम है, कहीं पर वो कीमत चुकानी तो होगी

जंगलों से परिंदे हैं गायब अचानक, बड़ी देर से है इक सन्नाटा सा छाया
घोंसलों का न जानूं अब क्या हाल होगा, हवायें चलेंगी रात तूफानी तो होगी

है लहू में जो डूबा ये आलम शहर का, ये लाशों के ढेरों पे रोती जो मायें
आह का असर है होना बस बाकी है नादाँ, लहू संग जाया कुर्बानी तो होगी

अब के मौसम अजब है खिजाएँ न जाएँ, दरिया है सूखा बगिया है वीराँ
फूल देखे ज़माना हुआ आँख प्यासी, कहीं कोई बच्ची हंसानी तो होगी

बाद मेरे न कहना किसी से ये यारों, के इन गलियों में हमारा था आना जाना
मुश्किलों से बड़ी है कुछ शुहरत कमाई, रखों मुह पे ताले ये बचानी तो होगी

बिकता है दुकानों में सब कुछ यहाँ पर, कारोबारी शेहेर है सौदागर ज़माना
जो कभी आप यूँही आजाओ यहाँ तो, कहीं अपनी टोपी छुपानी तो होगी


खाब में भी यहाँ चीखें सुनता रहा जो, कहाँ से वो 'चक्रेश' नजाकत ले आये
कभी तो तेरे हुस्न पर लिख सकूँगा, कभी ये कलम कुछ रूमानी तो होगी ?


कब तलक ओ जवानों जज्बों को दबाये, मदाड़ी के खेलों पे बजाओगे ताली
चुदियाँ ही पहन लो गर गैरत न हो तो, लहू की अब आग दिखानी तो होगी

किस काम की रही अब तुम्हारी जवानी, इसे खौले तो ज़माना है गुजरा
जो कभी आप रख कर कोई चीज भूलें, रखे हुए वो यूँही पुरानी तो होगी

Thursday, November 4, 2010

ज़िन्दगी तुने मुझे ये आज क्या सिखला दिया

ज़िन्दगी तुने मुझे ये आज क्या सिखला दिया
सैकड़ों तिमिरों के आगे उजाला दिखला दिया

मैं निर्बोध अबोध बालक निराश ना हताश था
तुने खुद ही दीप नयी आशाओं का जला दिया

क्या नहीं कर लूं अगर मैं ठान लूं करने की तो
भूल गया था अपना तेज़ मैं तुने याद दिला दिया

देखता रह दूर से अब बड़ चलें मेरे कदम
ऐ निराशाओं के सागर तुझको मैंने भुला दिया

Wednesday, November 3, 2010

तनहा तन्हा

तनहा तन्हा हमको यहाँ लगने लगा है ये jahan
कैसे कटे अब ये सफ़र, कोई nahi है कारवाँ

साहिल पे गुजार दें अब सोचते हैं ये उमर
मौज-ओ-दरिया प्यार का है दूर हमसे अब वहाँ

(मौज-ओ: 22 दरि:12)

इन गुहरों का अब क्या होगा ले आई जिनको लहर
किसे दूँ तोहफे प्यार के है कौन अपना जान-ऐ-जाँ

इस शाम ने हमको रुलाया फिर अपने उसी सवाल से
आया कहाँ से तू बता? अब जाएगा कह तू कहाँ ?

जब ख़ाक हम हो जाएँ तो आना कफ़न पे तुम सबा
आना न इस रात अभी, साया नहीं कोई यहाँ....

Monday, November 1, 2010

तुमने ऐसा क्या किया

तीरे नज़र का दोष है
मारा मारा फिरे है वो
तुमने ऐसा क्या किया
बेचारा फिरे है

तू दिल-फरेब है यहाँ
महफ़िल सजा रहा
क्या पता किसी सह्रांव में
बेसहारा फिरे है वो


इश्क का कसूर है
कुछ होश नहीं उसे
आप का है करम
नाकारा फिरे है वो

आपने घर सजा लिया
हंस कर रकीब संग
आज तलक आस में
कंवारा फिरे है वो

जाना न मज़ार-ऐ-कैश पे
वो अब नहीं वहाँ
कहते हैं आज कल कहीं
आवारा फिरे है वो

Sunday, October 31, 2010

एक ख़त आखिरी

शबनमी लिबाज में जो आगयी शाम फिर
एक नज़्म लिख चले लो आप के नाम फिर

जो हम बार-बार चाँद देखने लगे
तारों के पार संसार देखने लगे
उफ़! कहाँ रह गया करने को कोई काम फिर

सोचते थें लिख चलें रूह की पुकार को
एक ख़त आखिरी खोये हुए प्यार को
क्या पता हो न हो आपसे कभी सलाम फिर

आप तो सो गए चैन से हम मगर
रात जागते रहे और हो गयी सेहर
चर्चे अपने प्यार के शेहेर में हुये आम फिर


दाग न लग सके आपके दामन पे कहीं
लोग आप को न कहदें हाय! बेवफा कहीं
सोच के ले लिए हमने सब इल्जाम फिर

Saturday, October 30, 2010

हे माँ सरस्वती ज्ञान दे

हे माँ सरस्वती ज्ञान दे
अंतर की निद्रा तोड़ सकूं
तू आज मुझे वरदान दे
चिंता सकल मैं छोड़ सकूं

एक नया उत्साह हो
एक नया उजियाला हो
अपने गीतों से मैं माँ
बिखरे समाज को जोड़ सकूं

भ्रष्ट हुआ संसार ये कह कर
अपना जीवन न बिसराऊँ
औरों से आगे मैं बढ़ कर मैं
ये उलटी धरा मोड़ सकूं

हे माँ सरस्वती ज्ञान दे
वरदान दे

हम को नहीं था ये पता के हम यहाँ मेहमान थें

हम को नहीं था ये पता के हम यहाँ मेहमान थें
सब में रहें कल तक मगर सबसे यहाँ अनजान थें

हमसे सभी कहते रहे करना न तू कभी दिल लगी
रहता मगर कब होश था हम भी बड़े नादान थें

पलकें न भीं/गे यार का दामन सदा महका करे
सबसे अलग हो इक जहाँ अपने अजब अरमान थें

जिनसे कभी कुछ न गिला वो भी रंज जताने लगे
राहें न थीं सीधी कभी हर बात पे फरमान थें


==.=/==.=/==.=
jeena yahan, marna yahan....

Thursday, October 28, 2010

bachpan

बंद वहाँ उस कमरे में भरी दुपहरी मेरा bachpan
हाय! कब तक शाम के इंतज़ार में रह पता
लू क्या होती मैं क्या जानू
डर तो बस दादी की फटकार का रहता था

दूर से आतीं सायें सायें की आवाजें
बागीचे मुझको बुलाते थें
और मैं दबे पाँव
किवाड़ खोल के धीरे से
चौखट तक आ जाता

छज्जे के नीचे,
पकड़ खम्भे को
जैसे मैं ये कहता हूँ -
"थाम ले तू हाथ मेरे नहीं तो मैं भाग जाऊंगा
और शाम फिर फटकार दादी की मजबूरन मैं खाऊंगा"

पर खम्भा जो न सुनता बात मेरी
मैं मन के बहकावे में आये
धीरे धीरे पाँव बड़ा
बागीचे की ओर निकल जाता

मेड़-मेड़ से होते होते खेतों-खेतों
चलता जाता
याद आती फिर कहानी बंसवार में रहने वाली चुडेल की
और मैं सहमा सहमा सा रह जाता
फिर पलट कर धीरे धीरे अपने घर को मैं आता
और धीरे से दादी के बगल में आकर सो जाता

रंज बन के जब धुवाँ आँखों पे यूँ ही छा गया

रंज बन के जब धुवाँ आँखों पे यूँ ही छा गया
तब उसे भी पागलों सा खुद पे हँसना आ गया

हार के रोया न होता दिन सारा पर वो रो पड़ा
खुद खुदा आ ख़्वाबों में सजदा करना सिखा गया

आयतों में पीर कहता तो सही सब बात है
वो यहाँ लगता है लेकिन काफी कुछ छुपा गया

आज तू हँसता क्यूँ काफिर हाल पे उसके बता
सोचता हूँ वो क्या हारा, और तू क्या पा गया ?

तू न समझा उम्र के पहलू कभी ऐ नासमझ
और नासमझी में अपनी तू बस सवाल उठा गया

Tuesday, October 26, 2010

जीवन का ये आजीवन कारावास


जीवन का ये आजीवन कारावास
कैद में जिसकी हैं अंसंख्य,
स्वछन्द विचरने की अभिलाषा लिए
विवशता में बंधी आत्मायें
किसी विधाता की सोच का परिणाम कैसे हो सकता है भला ?
जंगलों में मार कर-छीन कर
एक दूसरों से जुदा रहने वाले जानवरों में रह कर
जब उसने ये समझा होगा
के जरूरी बहुत है
धर्म में बांधना इन स्वार्थी दरिंदों को
तब कहीं जा कर के उसने ये स्वांग रचा होगा
वेद पुराण गीता कुरान का सृजन कर
मोक्ष का लोभ दिया होगा
और तभी से कैद-कैद सी हो पायी
वर्ना तो वीराने होते
खंजर हर सिरहाने होते
जीवन का ये आजीवन कारावास
कैद में जिसकी मैं हूँ तुम हो
दे रहा है रह रह कर
आज न जाने क्यूँ दर्द बड़ा
क्या क्यूँ कौन ये प्रश्नों से मैं आगे
राहो में अकेला यहाँ
सोच रहा हूँ जन्म निरर्थक ही था शायद
मौत के आगे भी कुछ न होगा

Monday, October 25, 2010

उन दिनों तुम न थे


जिन दिनों उम्र पर तन्हाई का बुखार था
टूटता शरीर और ह्रदय तार-तार था
चिलचिलाती धुप में छाँव ढूंढ रहा था मैं
वीरानी पड़ी बस्तियों में गाँव ढूंढ रहा था मैं
मेरे हर इक स्वप्न पर वक़्त का प्रहार था
उन दिनों तुम न थे
उन दिनों तुम न थे

रक्त-लेप भाल पर
मैं समय की ताल पर
गर्त नापता गया
अंतर झाँकता गया
समाज रुष्ट जब हुआ मेरे हर सवाल पर
उन दिनों तुम न थे
उन दिनों तुम न थे

स्वाभिमान हार कर असहाय था जब पड़ा
जागता था रात-रात, शोक था जब बड़ा
साँस-साँस में एक बस ही पुकार थी
हार स्वीकार थी, मौत की गुहार थी
निर्वस्त्र बीच बाज़ार में सर झुका था मैं खड़ा
उन दिनों तुम न थे
हाय! तब तुम न थे

दोष शास्त्र ने मढा जब हाथ की लकीर पर
कुंडली भी हंस पड़ी जब भाग्य के फ़कीर पर
न कोई जब विकल्प था
चला लिए संकल्प था
जब हँसा वो योद्धा मेरे खाली तुनीर पर
हाय! तब तुम न थे
उन दिनों तुम न थे

Wednesday, October 20, 2010

सिन्दूरी आँचल शाम के बादल


सिन्दूरी आँचल शाम के बादल

चंदा का यूँ शर्माना
कितनी मधुर है प्रेम की बेला
कितना मधुर तेरा आना


इन साँसों की तुम सरगम हो
धड़कन की तुम हो शेहनाई
पल भर जो आकर मिलती हो
मिट जाती है सब तन्हाई
क्या मांगे अब वो इश्वर से
सोच में तेरा दीवाना

मन की गलियों में झंकृत हो
बन कर के पायल की धुन
वीणा की जैसे तान कोई हो
मीठा सा इक स्वर रुनझुन
लायी हो इंतना संगीत कहाँ से
मुझको ज़रा ये बतलाना



विधाता की कोई रचना हो तुम
क्या लिखे कहो तुमपे ये कवी
शब्दों में उतारे कोई तुमको
ऐसी कहाँ बोलो है ये छवि
रूप में जल के क्या हाल हुआ है
कैसे कहे ये परवाना





क्या होठों पे तुम रखती हो
हर शब्द कलि बनके ढल्कें
ये नयन दो मद से हैं भरे
मुस्काई जो तुम ये छलकें
सीख भी लो अब रूप पे अपने
थोड़ा  सा तुम इठलाना


सिंदूरी आँचल ....

Monday, October 18, 2010

धूल से ढंकी कुछ किताबें


आज अनायास ही
घर के पीछे वाल कमरे से आलमारी में रखी
छठी की इतिहास की पुस्तक ऊठा लाया |
धूल से ढंके जिल्द पर
मेरे ही नन्हे कांपते हाथों से लिखा था
मेरा ही बचपन का भोला सा नाम |
एक एक कर के पलटता पन्ने और
सोचता के
समय के साथ
हर रिश्ते की ही तरह
किताबों से मेरा रिश्ता भी कितना बदल चला है
वो भोलापन
वो अपनत्व
वो मिठास अब कहाँ इस रिश्ते में भी ?
जीवन की आपाधापी में
जीवन कहाँ पीछे छूट गया
पता भी न चला
इन पीले पड़ते पन्नों में
इतिहास सा विषय
और भी गंभीर सा दिखा मुझे
हर पन्ने पे पुराने समय की एक नयी कहानी
कहानी वो
ज़मींदारों की विवशता के बीच लोभ की
वो किसानों की पीड़ा की
वो बुख्मरी
और
मेनचेस्टर में भारत के कपास की
बंगाल का वो तरसा देने वाला सूखा
पूना में किसानों की हाहाकार की

फिर न जाने कौन था वो
जो खींच ले आया मुझे दो सौ साल पीछे से
और अगले ही पल मैंने खुद को पाया
TV के सामने आज के समाचारों के बीच
सचिन का दुहरा शतक
CWG पर विश्व समूह की भारत को बधाई
और उसमें हुई धांधली पर लीपा पोती
अयोध्या में राम मंदिर बनाने का किसी नेता का वादा

मेरे घर के पीछे वाले कमरे में रखीं हैं
धूल से ढंकी कुछ किताबें

सोचने कब दिया

जिंदगी ने हमे तो था गम सब दिया
हंसाते रहे तुम सोचने कब दिया

हर नए शेर की तुम पहचान हो
शायरी का है तुमने नया ढब दिया

जिस गली में हारे अपनी खुदी
देने वाले ने हमको वहीं रब दिया

आँचल के कोने में लपेटें वो उंगली
कब साँसें रूकीं गिरेह कब दिया

बाग़ का हर फूल मेहरबान तुम्हारा
खिलने का कलि को तुमने सबब दिया

Wednesday, October 13, 2010

Secret of Blissful life..revealed in The Lotus temple, Delhi

Away from home in college and then away from college in the corporate world, I am going through transitions and amidst these transitions I have seen so many different colors of life. There were times when the desire to go on was no longer there. There were times when the heart was broken the belief system fore shaken and energies lost in contemplation. I never knew where was I headed and was sad to know that I was moving without a heading. There were questions that started with words like ‘what if’ and ‘why should I’. I was weak and constantly looking for help. I had friends but I didn’t want to loose them. I was quiet.
Time kept passing at it’s pace patiently and I kept getting weaker and weaker till one day it so happened that I decided to go to The Lotus temple. The one and half hour metro train journey to the Lotus temple from Gurgaon was no different from the life so far. It was painful, it was full of doubts. I kept asking with every time a gush of passengers filled the train at new stations that why did I decide to go to that temple. But just like life, there is no turning back in a metro. I kept quiet. Sometimes the train would go underground and there would be complete darkness and then it would emerge into light. Life and a metro train are the same I guess.
Finally when I reached Lotus temple and walked bare footed on those stairs leading to the temple hall, something just happened and I felt weightless. The mind was thoughtless. The face could once again experience the wind. The eyes could again notice the birds and the ears could once again hear the chirping of birds. Inside the temple I sat on the marble benches and closed my eyes. I did not sleep. I did not try to meditate. I just went thoughtless! I got the answers to my questions in one single moment and since then my life has become blissful and simple.
Now, let me break then suspense and tell you all good people reading this post patiently, the secret that I mentioned in the title: Stop all inner chattering, your conscience will by itself show you the path and without any effort from your side your body will by itself do what it must do (just like the heart beats to keep you alive. Do not interpret the thoughts that come to your mind. Be quiet and believe in this secret of blissful life for some time and feel the change by yourself. Feel your being. Feel your existence.

शाम होते ही तलास-ऐ-आशियाँ होने लगी


शाम होते ही तलास-ऐ-आशियाँ होने लगी

खुद से बातें छोड़ दीं खामोशियाँ होने लगी
दिल की सब बातें नज़र से बयाँ होने लगी

अब नहीं रोके रुके है
आसूवों का सिलसिला
क्या कहें किनसे है शिकवा
और किनसे था गिला
महफ़िल में आम सब बातें-पिन्हाँ होने लगी...१

रोज़ सोचें हम ठहर कर
और आगे अब कहाँ
दैर हमसे दूर है
दर नहीं कोई यहाँ
शाम होते ही तलास-ऐ-आशियाँ होने लगी...२

इक सदी से छाई रही
वीरानी औ खिजा जहाँ
हम वहीं पर चले सजाने
ख़्वाबों का इक बागबाँ
जिंदगी जीने की फिर हसरत जवाँ होने लगी...३

हमको कब मालूम था
के हम अकेले थें खड़े
वो तमाशाई फकत थें
जिनके खातिर हम लड़े
'चक्रेश' जुदा सब अपनी परछाईयाँ होने लगी...४

यूँ तो तनहा ही सफ़र था
था न कोई कारवाँ
हम किनारों पे कहीं थें
और न था कोई वहां
आज क्यूँ हर हमपे नज़र मेहरबाँ होने लगी...6


Ckh.

Monday, October 11, 2010

ये शाम कहीं फिर मुझसे न


ये शाम कहीं फिर मुझसे न
कोई कविता लिखवा जाए
कहीं अनकही बात कोई फिर
इन पन्नो पे न आ जाए

हाथ बाँध दो कोई मेरे
मुझे कहीं और ले जाओ
शोर मचा दो बस्ती में
मौन मुझे बस दे जाओ
मन के गलियारों में फिर से
भूला बचपन न छा जाए

क्यूँ करती हो अट्हास मुझसे
ऐ डूबती किरणों बोलो
उपहासित करते हो क्यूँ मुझको
शब्द माला के वर्णों बोलो
अंतर मन की पीड़ा का
कोई थाह कहीं न पा जाए

न करो बात मुझसे तुम ऐ मन
भावुकता से मैं दूर सही
नहीं चाह मुझको भावों की
चूर ह्रदय सो चूर सही
कहीं कोई स्नेह भाव से
घाओं को न सहला जाए

ह्रदय का मद्धम साँसों का
रुक रुक कर आना जाना
मंद सुरीली पुरवाई का
कानों में कुछ कह जाना
कहीं पल भर का सुख दे कर
मुझको न रुला जाए

Monday, September 27, 2010

शाम रिन्दों ने हमको पिलाया बहुत


शाम रिन्दों ने हमको पिलाया बहुत
हौसला टूटे दिल को दिलाया बहुत

हम भी पीते रहे,
घाव सीते रहे
भूल हम ना सके फिर भी उनको कभी
देखो होता है वो
होना होता है जो
मिल ना पाये दो दिल मिलाया बहुत

सजती दुल्धन कहीं
खूबसूरत कोई
जैसे अम्बर से उतरी हो कमसिन परी
आखों में है उसकी
बस मूरत यही
ना टूटे ये मूरत हिलाया बहुत

ऐसे देखो कभी
ऐसा होता है भी
फूल गुलशन में खिलता बिखर जाता है
फिर भी दुखता है मन,
क्यूँ उस फूल प़र
खिल पाया ना जिसको खिलाया बहुत



जाम छलका किये
रात कटती रही
खुद को खोने का हमको गुमाँ हो गया
जाने किस सख्स से
हमने दिल की कही
होश आया जब उसने हिलाया बहुत

शाम रिन्दों ने हमको पिलाया बहुत.....................

Saturday, September 18, 2010

पत्थर का टुकड़ा

एक पहाड़ की चोटी
सदियों से इक ऊचाई पर टिक कर
लगातार खुला आसमान देखती आई है
और साथ ही नीचे वादी में बहते
तेज धार पानी की उथल पुथल को भी
आज अचना धरती के नीचे हुए हल्की सी गतिविधि से
सतेह पे बड़ा भूचाल आया था
और वो चोटी पहाड़ से टूट कर
घाटी में लुढ़कती ठोकर खाती आ गिरी
गिरते समय एक पल को खुला आसमान दीखता
और दूसरे पल नीचे जल का तेज़ प्रवाह
सदियों का भूत, वर्मान के कुछ क्षणों में परत दर परत खुलता चला गया
और वो पत्थर का टुकड़ा लुढ़कता चला गया
लुढ़कता चला गया

अयोध्या

मैं प्रतिमा हूँ
मैं प्रतिमा हूँ
प्रतिमा हूँ मैं राम की
मैं प्रतिमा हूँ
मैं प्रतिमा हूँ
बोलो मैं किस काम की ?

न तू मुझसे पूछे है
न कहता है मन की बात
क्या करूँ जान के तू पंडित है
जब मुझसे ही है तेरी जात

हर रोज़ सजा कर थाल आरती की
जाने क्या जप जाता है
दिन में तू प्रशाद चढ़ाता
रात बैठ खुद खाता है

ये न कह की मुझमे तुने
राम को कहीं देखा है
सच और झूठ के बीच में प्यारे
एक हल्की सी रेखा है

अपराध नहीं तेरा जो तूने
भक्त जनों को ज्ञान दिया
मुझ पाषाण की मूरत को तूने
इतना उच्च स्थान दिया

बस डरता हूँ मुझ जैसा ही
तू पत्थर न हो जाए
जलता हो अयोध्या में मस्जिद
और तू मंदिर में सो जाए

Thursday, September 16, 2010

फासला क्यूँ हो

ता उम्र जिल्लत गुमनामी रहा तेरा नसीब
तुझे खुल्द का हौसला क्यूँ हो ?

गर शाहीन तू मज़हब है उड़ान तेरा
आसियान तेरा ये घोंसला क्यूँ हो ?

खुदा परस्ती मेरी बुरी अब तू बता
लहू में डूबा काबा-ओ-कर्बला क्यूँ हो ?

ईसा या मुहम्मद से हो तो हो ताल्लुख तेरा
इंजील गीता कुरान में फासला क्यूँ हो ?

ये रस्म बहुत थी जहाँ में इक बार आने की
आने जाने का ये सिलसिला क्यूँ हो ?

अपनी गली में जो रहता हूँ अकेला
हर शख्स को मुझसे शिकवा गिला क्यूँ हो ?

Tuesday, September 14, 2010

यहाँ ठेस लगाती है दिल टूटता है

मुझे रास न आया ये खेल यारों
यहाँ चोट लगती है दिल टूटता है
ज़रा भी न भाया ये खेल यारों
यहाँ ठेस लगती है दिल टूटता है

ये आखें तो देखें बस मासूम सपने
मंदिर जोड़े जो भी हाथ अपने
तुम ही कहो वो क्या मांगता है-२

एक बच्चा लड़कपन से पाए जवानी
जवानी बन जाए एक करूड़ कहानी
तुम ही कहो वो क्या मांगता है -२

बागीचे में बाबा फूलों से भंवरे उड़ाता
थक जाता हांफता फिर सुस्ताता
तुम ही कहो वो क्या मांगता है -२

कर्म तुला पे झूलता तराजू पुण्य पाप का
समझ न आये मुझे हिसाब इसके माप का
विरासत में पाया ये खेल यारों
मुझे रास न आया ये खेल यारों
यहाँ घाव भरता है फिर फूटता है
यहाँ ठेस लगाती है दिल टूटता है

Monday, September 6, 2010

याद बहुत वो आती है

वो लड़की सुन्दर श्यामल सी
भोली सी पगली वो कोमल सी
सारी रात जगाती है
याद बहुत वो आती है

पावनता की वो परिभाषा
जीवन जीने की वो आशा
ख़्वाबों में मुस्काती है
याद बहुत वो आती है

बोली की जैसे धुन वीना की
बालों में खुशबू उसके हीना की
जाने क्या कह जाती है
याद बहुत वो आती है

सावन आये बरखा बरसे
उसके रूप को आँखें तरसे
हाय ! कितना मुझको सताती है
याद बहुत वो आती है

Thursday, September 2, 2010

किस्तों में आया बचपन

किस्तों में आया बचपन
किस्तों में मेरी जवानी
कतरे लहू के टपके
आँखों से बन के पानी

किसने किया था सौदा
मेरी ज़िन्दगी का जाने
रद्दी में बिक चली है
ये उम्र के कहानी

ऐ दिल नहीं खबर थी
शहर का हाल ऐसा होगा
अब याद आ रही हैं
गलियाँ वो पुरानी

अपने बाद फिर ना होगा
चर्चा कहीं हमारा
इक सांस आखिरी फिर
ना होगी कोई निशानी

मुझको नहीं है फिर भी
शिकवा किसी से ऐ दिल
तकलीफ दे रही है
ये सांस की रवानी

नादाँ हूँ मैं शायद
मुझको खबर नहीं है
"चक्रेश" हो गया पागल
या दुनिया हुई दीवानी.....

Friday, July 16, 2010

स्याह आँचल रात्री का

बंद करके घर के दरवाज़े,
टूटे छप्पर से ऊपर देखूं तो
ऐसा लगता है के सारे तारे,
राज की बात कोई बताने को
जैसे चुपके से मेरे कानों में,
दैवीय गीत कोई गाने को
आये हों मेरे दुनिया में
रंग नया लाने को
फिर कहीं से चंदा बैरी
चला आये दबे पांव बीच हमारे
और रात्री के स्याह आँचल में
सिमट जाएँ सारे तारे.......
बात अधूरी रह जाती
हृदय की वेदना तड़पाती
समझ से मेरी बाहर है
तारों का मुझ तक आना
बिना कहे कुछ भी पर
अंधेरों में खो जाना ....

Saturday, June 12, 2010

Ocean within

There’s an ocean within
So deep I can’t tell
Rivers dancing together
Don’t know its heaven or hell

Every breeze is frozen
Cold waves sing no songs
A dumb struck silence
Seems time has stopped
There’s no ticking sound
no ringing bell
There’s an ocean within
So deep I can’t tell...

The blue-gray lines
From the horizon O’ dear
Keeps calling from beyond
but still I am here...
no song no joy
no breeze no smell
there’s an ocean within
so deep I can’t tell

A wretched ship sinks
leaving all sailors dead
caption’s promise stands broken
sad albatross said:
there’s an ocean all around
so deep I can’t tell
rivers dancing together
don’t know it’s heaven or hell
..............................................................................Chakresh

Friday, June 4, 2010

The question was wrong

Four year my college life, I spent walking alone and thinking why life is not the way I wanted it to be? ...and then one question would lead to another and I would end up asking why don't I understand life?....I went through depression, frustration, anger and then lost all my energies. Today I realise that the question itself was wrong.The essence of life is not how it is right now, but rather what can I do to make it better...The question was wrong ..

Wednesday, June 2, 2010

काल से द्वूत खेलता मैं

स्वप्न में
काल से द्वूत खेलता मैं,
जाने क्या क्या दाव पर लगा चुका हूँ |
पासों के इस खेल में
काल की पकड़ इतनी अच्छी क्यूँ है ?
यह भी मेरी समझ से बाहर ही है अबतक |
काल बहुत धनि तो नहीं पर
हार का डर उसके माथे पर आता ही नहीं |
उसका मेरे सर्वस्व लगा देने पर
मेरी तरफ देख कर हँसना
मुझे बिलकुल पसंद नहीं आता |
पर मेरे स्वप्न में मेरी ही हार तो हो नहीं सकती,
ये सोच कर एक और दाव लगा बैठा मैं |
पासे हाथों में लिए बैठा काल,
हँसता ही जाता
हँसता ही जाता

बड़ों का खिलौने

समय के साथ हम खिलौने बदल देते हैं
बड़ों के खिलौने उनके 'शब्द' होते हैं
और शब्दों से खेलना बड़ों खेल |
कोई अच्चा खिलाडी है तो कोई एकदम फिसड्डी,
पर खेल तो एक ही है |

अंक गणित

अंक गणित
अंको से शुरू होकर
एक सीमा रहित व्योम में उड़ती जाती है |
इस विस्तार को देख कर
दंग रह गया हूँ मैं |
अंकों का ज्ञान,
सृष्टी रचयिता को कितना था?
इस प्रश्न ने मुझे दे दिया है
एक अनिर्वचनीय मौन |

अभिमान अवसरवादी होता है

अभिमान अवसरवादी होता है
एक सियार की ही तरेह .
नहीं तो ऐसा क्यूँ होता है कि,
दिन के उजाले में,
दफ्तर में बॉस की चार गलियाँ हंस कर सह जाने वाला आदमी
शाम को घर पहुँचने पर
एक ऊंची आवाज़ भी बर्दास्त नहीं कर पाता

ओ लल्ला हौले हौले

कच्चे रास्तों पे नंगे पाँव चलना
वो कहना बाबा का- ओ लल्ला हौले-हौले

मंदिर की सीड़ी तेज़ी से चढ़ना
वो कहना अम्मा का- ओ लल्ला हौले हौले

डंडे के घोड़े को आँगन में दौड़ना
वो कहना माँ का -ओ लल्ला हौले हौले

Monday, May 31, 2010

Building a new India..India of our dreams

I just finished reading an article by a leading French journalist (based in India), Francois Gautier, India’s self denial. In his article he has praised the tolerance of the Indians and he says that he has noticed a striking similarity in the Indian people, their tolerance. He has praised our nation for it’s glorious past and the ancient wisdom. But according to him (and as it is quite visible today to us too) our people (we Indians) lack a sense of pride and we tend to feel belittled when we compare our country’s present situation with the developed western nations. We have started feeling that the system here is rotten, corrupt and incompetent.
I do not disagree with the author for most of what he has written. I feel he is quite right when he says that Indians keep judging themselves by the western standards and western wisdom. The main reason, as he too points out, is our poverty. We are a poor nation (now don’t tell me that the GDP is 7.4 today), and we feel this is because of our inefficiency.
25 million Indians died in 100 years due to famine during British rule (according to British statistics. In actuality the numbers were surely much more than this). India was a prosperous nation. People here lived in peace and longed nothing but spiritual happiness of their souls. Never has India tried to expand its borders or tried to plunder other nations. But our country has seen many greedy invaders and tyrant rulers. After the battle of Buxar there was such a huge scale plunder by the Britishers that loot became an English word (language of Wordsworth and Milton today recognises this word as Goods or money obtained illegally). During this time only the industrial revolution gained its full momentum in Britain. The point is that we will have to understand and realise that if today we praise the richness of some western country then we must take this into consideration that they are well of today and that is visible to us but the millions of people who died due to famine in India and many more in other countries of Asia and Africa in past. We must feel proud of our ancient wisdom that prohibited us from torturing others and that never asked us to spread our religion forcefully. Our forefathers have believed in peace and harmony.
Today we are having many problems and the youth of today when sees the western nations he is so much blinded by their development that he concludes that this nation is rotting and its no use staying here and wasting his career(most of the IITians either leave India or aspire to leave and get settled abroad) . Today, as the author of this article has pointed out, the main reason of our miseries is the flaw in our constitution. The flaw that allows the political parties to collect funds for their election campaigns. No one can aspire to become a political leader in this country on sheer talent and desire to work for the nation. Politics needs black money, black money brings criminals in politics, crimanalization of politics takes place and then politicisation of criminals.
The biggest nation party in this biggest democracy of the world, the INC, itself is the clutches of Sonia Gandhi today, who as per the author knows nothing about India. But the Indians just ignore it and rather have accepted her by now, here comes the tolerance of Indians.
Every nation has its own problems, but no problem can be so huge that the people of that nation cannot tackle. If anything is needed then it is the self acceptance. Accept that you are an Indian and feel proud about it(and don’t just say it). Work for the betterment of the society(that’s what The Holy Baagwad Geeta say is the karma of every individual). Stop comparing our nation with the western nations and look forward to build a new India that cherishes the wisdom of our ancient gurus and sanyasis.
I found the article thought provoking and thus shared here with you. I hope with time, more and more people (especially youth) will start accepting that its their duty to build a new India .

जीवन एक कविता ही तो है ....( एक और प्रयास )

(मैंने एक ही कविता को चार अलग अलग तरह से लिखने का प्रयास किया है....)




जीवन एक कविता ही तो है
हूँ किसी पंक्ति का एक शब्द मात्र मैं
इन मात्राओं का उन मात्राओं से मेल है जीवन
कुछ छंदों की लय ताल का खेल है जीवन
मैं न होता पर्याय भी कोई मेरा यदि कविता में होता
तो भी अर्थ कविता का शायद लेश मात्र भी न खोता
पर मैं हूँ इन छंदों में क्यूंकि
उन छंदों में साथी तुम हो
लय ताल कविता की हमसे
फिर क्यूँ आज तुम गुमसुम हो ?
जीवन एक कविता ही तो है

जीवन एक कविता ही तो है
है भावों का एक पावन मेला

कल कल करता निर्मल जल हो
या हो कोयल का मीठा गीत
मंदिर से आता स्वर घंटी का
या हो गीता का चिर संगीत
जीवन एक कविता ही तो है


जीवन एक कविता ही तो है
रंगों छंदों का सुन्दर संगम

भीनी गंध गीली मिट्टी की
हैं खेतों में फसलें लहरातीं
तितलियाँ उड़ती पंक पसार
कैसे कलि कलि मंडरातीं
जीवन एक कविता ही तो है


जीवन एक कविता ही तो है
रिश्ते नातों का ताना बाना

माँ बेटे का प्यार कहीं है
पिता का कहीं है लाड-दुलार
बहन-भाई का एक धागे का रिश्ता
कहीं पति में पत्नी का पूरा संसार
जीवन एक कविता ही तो है

Saturday, May 29, 2010

जीवन एक कविता ही तो ह

जीवन एक कविता ही तो है
और हूँ किसी पंक्ति का एक शब्द मात्र मैं
इन मात्राओं का उन मात्राओं से मेल है जीवन
कुछ छंदों की लय ताल का खेल है जीवन
मैं न होता पर्याय भी कोई मेरा यदि कविता में होता
तो भी अर्थ कविता का शायद लेश मात्र भी न खोता
पर मैं हूँ इन छंदों में क्यूंकि
उन छंदों में साथी तुम हो
लय ताल कविता की हमसे
फिर क्यूँ आज तुम गुमसुम हो ?
जीवन एक कविता ही तो है

Wednesday, May 26, 2010

adhoori kavita

मैंने हर इक पहलू को उलट पलट कर देखा है
जीवन मेरा और कुछ नहीं हाथ की अविरल रेखा है

कौन कहता है समय ये चलता है चलता जाता है
....................kuch samajh nahi aata hai .........hahahahha

NOthiNGneSS

A glass top shinning table in front of me on which my laptop is resting right now and cool air from the new Samsung air conditioner has chilled the air around me. I am sitting on this cosy couch with my legs stretched and I’m looking at the books arranged so well in front of me in those wooden shelves. Yes, this is it! This is the room I always dreamt of. I have seen a life where I used to live with my parents in small rented rooms. I have seen tough days and now we have this big house of our own. What else do I want I have a job in hand, I have graduated from a top engineering institute of India. How do I feel? Do you want to hear? I feel NOTHING. See I didn’t put an exclamatory mark after the one word answer. It’s not that the feeling of nothingness came to me like a sudden shock, but it’s there for a long time now. I live with this feeling and I am now so much accustomed to it that I do not even notice it’s presence. I am with my family today, after such a long time and I do not feel like talking to them. They keep complaining about my behaviour and feel nothing. I keep constantly looking at these books behind the glass planes in those shelves. Communication Engineering by Haykins, Operating Systems by Galvin, Number theory, Networks, books on history, public administration, literature and books God and poetry. Why was I reading so much for so long if everything had to end up this way? A job in some firm, some package some post? Didn’t I know this was going to be the end the day I started my journey? Whom was I playing game with and whom was I trying to cheat? I do not know how to feel but feel nothing. What do I want today? ..break off, set myself free.....FREEDOM ..... huh.....so much to ask for.......freedom from what...constant need for desiring something and constant compulsion of setting some aims and proving oneself again and again, till one meets his death. I guess I ask for too much and I guess things are going to get even worse with time.....

Thursday, May 13, 2010

क्या देखा है तुमने कभी

शाखों से गिरते पत्तों को क्या देखा है तुमने कभी,
एक गिरता है फिर अक और भी
एकदम वैसे ही...
बारिश में बींगते बच्चों को क्या देखा है तुमने कभी
माँ दौड़ती है उनके पीछे
और भींगती है एकदम वैसे ही
प्याली में राखी चाय को ठंडी होते क्या देखा है तुमने कभी
भाप उठती है और खो जाती है हवा में
एकदम उठते है
मेरी प्याली खाली क्यूँ है अब तक
माँ नहीं दौड़ती मेरे पीछे क्यूँ
क्यूँ बारिश की बूँदें नहीं भिंगोतीं मुझको अब
किस पत्ते के गिरने की राह देख रहा हूँ मैं

Saturday, May 8, 2010

एक चलती आकृति

भावनाओं का अनुसरण करती मेरी समझ
आ पहुचती है बार बार इक पड़ाव पे
जहाँ धुंधले आसमान में
एक चलती आकृति
स्वेत साडी में लिपटी ,
आँचल लहराती
जाने कबसे क्या दूंढ रही है
हाथ आगे बड़ा कर चाहता हूँ छूना उसको मैं
चाहता हूँ साथ बिठा कर पूछना,
उसकी अनवरत यायावरी का उद्देश्य
पर न जाने क्यूँ वो दूर भागती है मुझसे
एक शून्य में,
एक अँधेरी काली भयावह गुफा की ओर

Friday, April 23, 2010

‘People’, ‘society’ and ‘need’

‘People’, ‘society’ and ‘need’ were some of the words that I found difficult to spell in my school days. It’s not that these words were long or difficult to memorize, I was rather scared by their mention. I fond myself so weak. Constantly my conscience kept telling me that I was a unique human being with some great qualities but the real word made me feel my limitations and meaninglessness of my qualities. A poet for instance has no place in the corporate world. A human being with no desires, no passions will be left behind in the competitive world outside. A thinker living below poverty line will never be able to emerge as a great leader and reformer. Well exceptions are always there but that’s also not very encouraging. If I am born in India and I do not belong to Gandhi-Nehru family what are my chances to become the Prime Minister of my country some day? Some of you will start counting the names of Manmohan Singh ji, Atal ji etc. Well I leave this question here and move forward. The point is that I see a lot many flaws in our system. Let it be educational, let it be judicial, political etc. I feel if one believes in oneself and loves oneself then at some point or the other, he/she will break down in front of the rigid system. The passion to think something out of the box and work hard dies out by time. Sincere efforts are rarely noticed and awarded. People are becoming selfish, corrupt and inhumane. Those who are capable of doing something are tending to become indifferent to the society. The needy are wooed by the greedy politicians. The picture in ugly, the truth is bitter. I do not criticize the situation. I accept the facts. But I have changed now, I no longer laugh. I can see the truth in front of me like a devil and see myself as a walking corpse. The soul is silent, the mind is calm, conscience is in some sort of melancholy and there’s a scary silence within. I do not detest anyone, I do not argue with anyone and let them stick to their beliefs. I make myself see a blade of grass for hours and try to find a reason to live in such seemingly tiny things. If I am content with whatever I have why does the ‘people’, the ‘society’ makes me feel the ‘need’ to strive more and long for something more something extra? Why am I judged on the metrics set by others? Why am I an atheist if I do not believe in the form of God you do? Why can’t my set of belief be accepted as my own religion? Will you let me live...o’ my people ..o’ my society? ..............................

Sunday, April 18, 2010

उलझनें जीवन की

सुलझाने जो बैठा उलझनें जीवन की
उलझता चला गया
जाने कब गांठें पड़ी जीवन की डोर में
जाने कब दोनों सिरे हाथ से छूट गए


चक्रेश

Saturday, April 17, 2010

अंत अनंत का है नहीं फिर

अंत अनंत का है नहीं फिर
डगर का मोल क्या
मृतु मुक्ति है नहीं फिर
उमर* का मोल क्या ....................................................0

कारवां मेरा नहीं ये
मैं तो बस एक राहगीर
मैं किसी का हूँ नहीं फिर
सफ़र का मोल क्या .......................................................1

प्रभु के जिसको कहते हैं सब
पास होकर भी दूर है
धर्म मारने के हो काबिल फिर
ज़हर का मोल क्या.........................................................2


गर्भ सागर का गुहर से हो भरा
पल पल उठता तूफ़ान हो
खाली हाथ आये किनारे फिर
लहर का मोल क्या..........................................................3


टप टप टपकती चाँदनी का
'चक्रेश' एक चातक है तू
चाँद अनजान हो यदि फिर
चाक जिगर को मोल क्या...................................................4

चक्रेश चल अब लौट चल
चाह तुझको किसकी यहाँ पर
भीड़ में भी हो तू अकेला फिर
शहर का मोल क्या...........................................................5

Friday, April 16, 2010

अंतिम दिन जीवन के

अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ

प्राण कंठ तक आ पहुंचें हों
भाव मुखरित न होते हों
प्यासा हो मन पाने को प्रिय को
बैरी नयन धुंधला जाएँ

शिथिल पड़ता मेरा शरीर हो
धमनियों में हो मद्धम रक्त प्रवाह
और बीते पल एक एक करके
मस्तिष्क पटल परछा जाएँ

चित्त चिता की राह ताकता
मृत सैया पे लेटा हो
आगे बढ़ कर दाग दे कोई
धुवां राख सब हो जाए

अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ

Its never easy for me to translate a poem. I give it a shot.
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On the last day of life, if a guilt sets in the heart
All life got lost in senseless race and I couldn't speak my heart to my beloved..

That life is about to leave the body and I am not able able to express myself
In that moment if the eyes wander to catch a glimpse of the beloved and every sight gets blurred..

That the blood flow in the nerves starts to slow down and each and every moment from the past
starts unfurling in the mind...

That the body lays on the logs waiting for the final pyre
Someone moves forward and give the final spark
and all that was gets lost to ashes and dust...

what is on the last day of life this guilt sets in ...

Wednesday, April 14, 2010

for all my batchmates @ISM

chalte tehalte kab aa pahuncha tha
main is anjaan se sheher mein
aur hissa ban gaya ek naye caarvan ka

kab shaam dhali naya din aaya
kuch yaad hi nahi

fir safar par chal diye thein
naye raahgeeron ke saath
haste gaate ek naye sheher ki or

kab shaam dhali naya din aaya
kuch yaad hi nahi

ab alvida kehne ka samay aaya hai
kyun lag raha hai ke
kisi se theek se kuch baat bhi na hui

kab shaam dhali naya din aaya
kuch yaad hi nahi

kaise beet gaye ye din raat
hum to dheere dheere chal rahe thein
ye antim padaav kab aaya


kab shaam dhali naya din aaya
kuch yaad hi nahi

haath hilata hun hanskar alvida kehta hun
par hridey ko to bas udaasiyon ne ghera hai
antim padaav par antim bhnet ye tumko saathi
antim kavya ye mera hai

ये जिंदगी by Sanjay Bhaskar

ये जिंदगी भी न जाने कितने मोड़ लेती है
हर मोड़ पर नया सवाल दे देती है
ढूंढते रहते है हम जवाब जिंदगी भर
जवाब मिल जाते है तो
जिंदगी सवाल बदल देती है |




http://sanjaybhaskar.blogspot.com/

Sunday, April 11, 2010

सृष्टी एक अनंत रचना

सृष्टी एक अनंत रचना
विधाता की दैवीय रचना

पात्र जिसके तुम हो हम हैं
विवरण में जिसके शब्द कम हैं
विधाता के कर कमलों की महिमा
काल पृष्टों पर अंकित ये रचना

नदी की लय ताल देखो
व्योम वो ये पाताल देखो
जीवन का संचार जिसमे
ऐसी अद्भुत विस्तृत ये रचना

Saturday, April 10, 2010

कुछ पन्ने थें अधूरे दिल की किताब के

कुछ पन्ने थें अधूरे दिल की किताब के
कुछ लिखा मिटा गए ये छीटे शराब के

सब-ऐ-फुरकत गुजारी मैकदे में कुछ ऐसे
चर्चे सारी रात चलें उन्ही के शबाब के

सिलवट नहीं चेहरे पर कोई शिकन न थी
रात दाग भी न था हुस्न पर माहताब के

फिर सय्याद दिन का तीर आँखों में चुभ गया
तनहाइयों से घिर गए सिलसिले टूटे खाब के

टुकड़ों से खाबों के कोई शिकवा नहीं लेकिन
चुभने लगे हैं ताने अब जहाँ-ने-खराब के

Friday, April 9, 2010

तारीफ़ करता था शेरों की जो अपने नहीं थें

तारीफ़ करता था शेरों की जो अपने नहीं थें
लिखता था जुमले जो कभी छपने नहीं थें

करता था बागबानी अरमानों के बागों में
लगये वो फूल जो खिजाओं में पनपने नहीं थें

जुदा हुआ मुझसे ज़ालिम साया भी मेरा
मेरे पते के ख़त भी अब मेरे अपने नहीं थें

इन आखों में चुभते हैं हर पल ये तुकडे
टूटे जो पलकों पे, फकत सपने नहीं थें

खूब रोया लिपट कर जिनसे मैं पहरों
होश आया तो जाना वो अपने नहीं थें

Wednesday, April 7, 2010

एक तस्वीर

एक तस्वीर..
..अनभिज्ञ..
दर्शक की आँखों से
आज्ञाकारी, सुशील पुत्री सी
कलाकार पिता की तुलिका का मान रखती
एक संस्कृति को अपने आप के संजोये
मानो किसी आदेश का पालन करती
या किसी कपिल मुनि के शाप
से पत्थर बनी अहिल्या सी
राम के पद कमलों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
सदियों से
चिपकी हुई है इन गुफाओं की पथरीली कठोर छाती पर

Monday, April 5, 2010

My pursuit to know LIFE

Sitting in the side upper birth of a train, I realise how similar is this journey and my journey of life are. For many days I was having some questions about life and I was unable to comprehend the purpose of life. I read Shreemad Bhagwad Geeta but still I could understand very little. If I believed that there was a supreme power called God, and that He created the Universe and life and everything we can perceive or can’t, then also I could not understand His purpose of creating everything. If He is so great He won’t just go on showing off His power just to see His followers, worshippers and to see how a man becomes weak and finally kneels down to Him and asks for help. I found the whole philosophy presented in Bhagwad Geeta lacking one critical point which I give utmost importance and that is PURPOSE. I talked to many wise men, and ended up finding myself even more puzzled. Throughout my life I have believed that a theory, a fact or an answer to a question can be taken as correct if and only if it’s simple and to the point. Well, at some point during my pursuit for truth, I forced myself to change my belief and make myself understand that few things are intrinsically complex or they are such that they get complex if we try to bind them with our beliefs. I stared believing in own form of God. I stared believing that there is some higher form of knowledge and there is some higher form of understanding that I need to develop through belief and patience. I started meditating and pondering over few points for hours. It was painful at times and was very enlightening at the very next moments. By now I have gained some insight about life. I feel Life is a game and we are the players. It has a simple rule one needs to know: DON’T ASK QUESTIONS ABOUT IT. Till the time you keep the rule in your mind, you are the player and life is the game. The day to start questioning it becomes the other way round. Life starts playing games with you. Bhagwad Geeta stresses on collectivism and its importance. It says that a man should work for the welfare of the society without any vested interest of his own and should not have the sense of the doer of his actions. He should not fear death as the spirit never dies. A man should work only because he is born and he should not take recluse in inaction (the first words from the Lotus lips of the lord Himself: ‘klambam ma sad gamyah parth......’). If I don’t ask question about who is God and how to seek Him and know Him. If I stop questioning my purpose of life and start living a of a man who works till he can and sleep when he is tired and never lets himself feel that he is the doer of the actions he does; and if I, while doing any action, ask myself just one question: is this action of mine going to be of any good to the society?, then will I be doing justice to this life? Well, yes. That’s what I feel. I am not going to lose anything here and am not going to take anything away from here, why should I bother about what else life could have been. Well, at this point you may be thinking what exactly I mean by “I”. If ‘I’ am not going to take anything from here, then this puts up two questions: what do I mean by ‘I’ and do I believe that the death of this physical body is different from the death of ‘I’. Do I believe that the soul is different from the body? This is a point where I am still speculative and it’s probably one of the last questions I need to get a concrete answer. I know I am breaking the rule I stated above of not questioning anything, I know that I am knowingly letting the life to play with me but then let me see how it feels to be a peg on a chess board and fight a battle rather than sit on a garden chair and take sips of coffee and play lazily. I am very cautious as I am going ahead. I know there’s a trap waiting for me some where here but I also believe that the trap won’t be strong enough to hold me helpless for long. The rule to break that trap is to stop questioning. No matter how complex life may look but in the end it’s very simple.

Saturday, April 3, 2010

आज होठों पे हैं दिलबर अफसाना तेरा

आज होठों पे हैं दिलबर अफसाना तेरा
रुख से पर्दा हटा तू कहता दीवाना तेरा

रात भर जागना, चाँद से बतियाना
फिर वही गीत हंसकर गुनगुनाना तेरा

अकेले में सजना, गज़रे लगाना
आइना देखना, खुद ही शर्माना तेरा

मेरी राह तकना, आने पे कहना
ऐसे आने से बेहतर था न आना तेरा

नाराज़ हो जाना, रूठ जाना मानना
लड़ना झगड़ना फिर मुस्काना तेरा

Thursday, March 25, 2010

फिर सजा बाज़ार मौला आज तेरे शेहेर में

फिर सजा बाज़ार मौला आज तेरे शेहेर में
बिकता है खरीदार मौला आज तेरे शेहेर में

नीलाम है ईमान का घर
हर शख्स है बे आबुरु
वाइज़ भी गमखार मौला आज तेरे शेहेर में

मुल्क शहीदों का जो था
है आज मुलजिमो के हाथ में
शहादत गयी बेकार मौला आज तेरे शेहेर में

अब्र बरसा दे अब के
पानी से लहू मिटाता नहीं
हर हाथ में तलवार मौला आज तेरे शेहेर में

खूब रोया याद कर के
बीते दिनों के बात मैं
ईमान की है मज़ार मौला आज तेरे शेहेर में

अब नहीं कश्टी हमारी
चाह में साहिल के है
हैवान है खूंखार मौला आज तेरे शेहेर में

Tuesday, March 23, 2010

LIfe, so far

Four years of college life is now coming to an end. Here I am standing all alone, under a tall tree, in its shades and observing a kid in the park who is running after a puppy. All of a sudden now I realize that it has been long since I have chased puppies.
There was a time when I was a kid, running behind butterflies and observing blades of grasses for hours. I wanted to see a plant grow but then dad told me the plants grow only when I am in deep sleep, in day time the plants are afraid of me. I would feel so strong to know that I can connect with even a blade of grass. I knew for sure that there is one single thread that runs throughout the universe and everything interact with each other. I was so happy. Everything was meaning and full of wonder and beauty.
I cannot recall when exactly everything changed. I believe the things did not change overnight. The flood of thoughts and imagination was hindered by the bitter, cruel realities. The school and its education made me think differently and made me feel so weak. When I asked my geography teacher, ‘How do people at the South pole live, don’t they get crushed between the earth and the surface on which the earth rotates?’ I remember how she laughed and said the earth rotates in space. I didn’t like her. She broke my beliefs everyday and her mocking laughs brought bitterness to my innocent heart. Time kept passing and everything started becoming so obvious. I stopped questioning the teachers and eventually stopped thinking. Amidst all this, Mathematics could somehow keep me busy and at times fill me with wonder. I wanted to know Calculus when I was in forth standard. My dad was having a great collection of books on Mathematics. I wanted to grow up and wanted to read those books. I would flip the pages of S L Loney, Piskunov, Hall and Knights and request dad to teach me those things. He said it was too early. I was quick and started with Calculus in my ninth standard. I found it extraordinarily attracting and powerful. Time kept passing by and I came to college.
The rigid educational system made me detest the system and I started doing all sorts of things that could keep me busy. Finally, I reached a stage from where I started seeing everything worthless. The kid in me was dead by now. Nothing seemed wonderful and interesting anymore. I started walking, walking alone. I have always been a kind of person who would not bother about what others say about him, but at times words hurt. People around me found it very awkward. Somehow I kept telling myself that there was nothing wrong and I kept walking, walking alone.
Thoughts kept accumulating and I kept mum. I had friends but we never discussed what I kept thinking. I kept asking myself: ‘for how long?’ I never got any reply. I kept walking. The final year of college came with a surprise, the thoughts in my head made a kind of kaleidoscope and whenever I would close my eyes, I could see the thoughts making extraordinary formations. I didn’t know what to do. Now I felt no need to walk alone anymore. I could see things crystal clear. The only unanswered question now left with me is, “what knowledge is there inside the smallest exiting bodies in the universe? This knowledge has to be universally same and must have the power to bring itself to existence through particles or light.” I call this theory “The knowledge Energy Theory”. But with this unanswered question, I may have to live for the rest of my life. I told myself to relax and do something creative and constructive, so that my live does not becomes a living hell. I picked my pen and penned down numerous poems within no time. I can write whenever I want. I have learnt the art of writing poems even when I am asleep.
At the end of my college life I can summarize my life so far in the following words: ‘A blade of grass made the kid inside me wonder. His pursuit of knowledge drew me to Mathematics. Mathematics opened the window of imaginations. Imaginations met there end at college. College filled the heart with bitterness. Bitterness made me pursue knowledge again. Knowledge brought me to a dead end and here I am spend the rest of my days writing poems, read books and amusing myself.’

प्रांगन में था पेड़ बरगद का, मैंने देखा नहीं

नहीं जानती माँ उसकी
लिखता है वो कवितायें
बस उदास रहती है के
बेटा कुछ कहता नहीं ....
गम सुम बस बैठ जाता है
हर शाम मुंडेर पर
उँगलियों में कलम घुमाता
देखता रात के आँचल को
मन ही मन कुछ कहता और
हंस देता...फिर वही एक विचित्र सा मौन
नहीं पूछती वो कुछ भी लाल से
मन को खुद ही समझा लेती
ये उम्र ही ऐसी है उसकी
हो सकता है किसी लड़की के सपने होंगे जागते उसे
क्या पता चाँद में एक चेहरा ढूंढता होगा वो
या कुछ सोचता होगा भविष्य की
हो सकता है भागवद का कोई श्लोक गूंजता होगा उसके मन में ..
ऐसा तो नहीं किसी ने कह दिया कुछ मेरे भावुक लाल से
ऐसा तो नहीं कोई बात टीस उठा रही है उसके निर्मल मन में
या बस जिद्दी है क्रमों से दूर भाग रहा वो ............

Monday, March 22, 2010

दादी

दादी की कोठरी में रखी लकड़ी की आलमारी
अन्दर रखती है दादी उसमें
पूजा का सामन और एक डब्बे में
मिश्री बताशे और किशमिश .
दोपहर में सब सो जाते नींद मुझे आती नहीं
सोयी दादी तो उठानी भी थीक नहीं
एक डब्बा खीच लाता हूँ नन्हे हाथों से
और सामने रेख कर आलमारी के
खड़ा हो जाता हूँ उसपर
फिर खोलता हूँ पल्ला आलमारी का
मुट्ठी भरता हूँ किशमिश बताशों से
छोटी मुट्ठी मेरी, थोडा खता ज्यादा गिराता हूँ
कुछ भी शोर किया नहीं मैंने
जाने कब दाबी नींद से जाग गयी
अब मेरे पीछे खड़ी मुस्का रही है वो
कान्हा कह गोंद में उठा लिया मुझे...
दादी की गोंद में कितना ऊंचा हो जाता हूँ में
.

वो वाली कहानी सुना दो

बाबा वो वाली कहानी सुना दो
राज कुमारी जिसमें रजा से
मांग बैठती है चंदा को
जिसमें राजा के सारी सेना
निकल पड़ती है चाँद लाने
बाबा आगे कुछ कुछ भूल गया मैं
थोड़ा सा तुम याद दिला दो
कैसे राजा ने फिर बिटिया के
नाखून को चाँद बताया था
और कैसे आसमान से चाँद उँगलियों पर लाया था
बाबा ऐसा क्यूँ है बोलो
जो कहानिया बचपन में
मुझको खूब हंसाती थीं
आज सत्य के क्रूर प्रहार पर
मौन धरे रह जाती हैं ...

Sunday, March 21, 2010

निः शब्द मन

क्या कहें के दर्द कोई अब कहीं उठता नहीं
जाने ऐसा क्या हुआ के घाव मुझको भा गया.
समाज घर परिवार यहाँ से अब मुझे दिखता नहीं
आँखों के मेरे सामने ये कैसा अँधेरा छा गया.
मौत नहीं अभी आई मुझको इतना तो आभास मुझे
चोंच मारने भूखा परिंदा यहाँ तक फिर क्यूँ आ गया..
गला मेरा सूखता है विश्रांति की अब बस प्यास मुझे
भूख मिटाने के लिए मैं गम अपना सारा खा गया.
अब कोई मुझसे जो पूछे मेरा ऐसा हाल क्यूँ
क्या हुआ के इस चट्टान पर मैं अकेला आ गया
निर्वस्त्र हूँ क्यूँ और यहाँ पर खड़ा फैलाये बाल क्यूँ
अनायास किस बात पर फिर मुझको रोना आ गया.

हार

दुखता है मन हर हार पर
जाने क्यूँ एय दिल जीत की प्यास भी नहीं
क्या कहें कैसे कहें कौन समझेगा
हमको अपने भी समझे ही नहीं
चल चलें कहीं दूर यहाँ से
चलें उस रेत के सेहरांव पर
कहते हैं साहिल जिसे
चल बनायें वहां एक रेत का घर
कुछ नहीं तो याद अपना
बचपन ही आ जाएगा
तो क्या की उठती लहर के साथ
घर अपना खो जाए गा
चल लिखेंगे नाम अपना
हाथ से हम लहर पर
और हँसेंगे चट्टानों पे नंगे खड़े हो
जीवन के सफ़र पर
सीपियाँ चुन दिन बितायेगें एय दिल
रात वही अपनी कब्र खोद कर
सो जायेंगे
किसी खामोश लहर के आगोश में
सो जायेंगे
रात वही अपनी कब्र खोद कर
हम दोनों ही सो जायेंगे

धर्मं का भी आँगन कितना श्वेत है ?

तेरे मेरे इस देश में
वाराणसी नाम का एक गाँव है
वहां अस्सी घाट पर
एक अलग सा ठहराव है
गंगा का अद्भुत विस्तार उधर
इधर श्रद्धा का अनुपम बहाव है

यहाँ बैठ तू देख मानुज़
एक झलकी अपने ही संसार की
डुबकी लगाता भक्त एक
अंजुली जल से भरी नार की
इस पार बैठ सोच तनिक तू
कहानी क्या है उस पार की

निर्मल जल, मध्य धार लाश तैरती
सामने तेरे भक्त मंत्र बोलता
साथ उसके वो लाश बोलती -
"क्यूँ नहीं तू आँख खोलता
समर्पण तेरा किस अज्ञात में
आखिर कौन तेरे कर्म तोलता ?"

क्षितिज पर टिके उस लाल सूर्या से
अब एय भक्त पूछ जरा तू
साँसों का आखिर तेरी क्या मोल था
है आज जीवित या मरा तू
कहता है तू आस्था है ये तेरी उसमें
मुझको फिर दीखता है इतना क्यूँ डरा तू


दैवीय इस स्थान पर भी
पत्थर जल और बस रेत है
प्रश्नों से दूर भागती भीड़ चीखती
पूछने वाला एक भूत या प्रेत है
मुझपर अधर्म का आरोप सही तू ये बता
धर्मं का भी आँगन कितना श्वेत है ?

Saturday, March 20, 2010

शतरंज

अपलक देख रहा हूँ
शतरंज की बिसात पर बिछी बाज़ी को
जो वजीर बढ़ाती हूँ
घोडा मात खाता है
घोडा पीछे हटा दूँ जो,
तो पुरानी चार चालें निरर्थक
क्यूँ न प्यांदा बलि चढ़ा दूँ ,
फिर देखि जायेगी ..
पहले ही एक गलती पर हांथी गँवा चूका हूँ मैं ...

मुद्दत हुई मयकदे गए

मुद्दत हुई मयकदे गए, नहीं है फुर्सत आज कल
मयनोशी का वो दौर था, नहीं है आदत आज कल

कुछ बात के जी नहीं लगता ऐ दिल तेरे शेहेर में
हर शख्स से जाने क्यूँ हमको है नफरत आज कल

दरवाजे घर के खोल कर, आये हैं हम चौक पर
जाओ सब कुछ लूट लो, भाति नहीं दौलत आज कल

कोई मिले तो दे चले हम सब कुछ अपना सौंप कर
हाथों में लेकर घुमते हैं अपनी वसीयत आज कल

क्या कहें 'चक्रेश' के जी लगता नहीं अब बज़्म में
हिज्र की रा-ना- ई-यों में दिखाती है जन्नत आज कल

Friday, March 19, 2010

मुहब्बत की स्याही वाही कलम

जब उस रोज़ बैठा था मैं
अकेले किसी सोच में खोया
बाग़ में पेड़ों की छाँव में ...
याद है क्या तुम्हे वो दिन, जब तुम आई थी
हंसकर
और दे गयी थी मुझे एक तोहफा कलम का...
फिर बैठ गयी थी वहीं पहलू में मेरे
और जिद्द की थी एक नज़्म लिखने की
लिखी थी एक नज़्म उसी मुहब्बत की स्याही वाही कलम से मैंने
याद है क्या तुम्हे
कैसे नज़्म पढ़ते पढ़ते
मदहोश हो गयी
ऊपर दाल से ताकती एक कली कनेर की
और आ गिरी कागज़ के सीने पर
फिर तुमने रख ली थी वो कली
अपनी एक किताब के पन्नो में दबा कर
कैद कर लिया था तुमने उस लम्हे को,
खुसी से, सदा के लिए .
अब वक़्त बदल गया है
काफी कुछ नहीं रहा पहले जैसा ... जानता हूँ
कुछ था उस कलम में,
उसकी स्याही से निकली ...
हर नज़्म में खुशबू थी
कुछ बात थी ...
जीने का सहारा बन गया था वो तोहफा तेरा
आज वो कलम खो आया
फिसल गयी उँगलियों से मेरी, मैं पकड़ न सका उसे
जिंदगी फिर वीरानी सी लग रही है अब
दीवाना हूँ... जानता हूँ ..मगर फिर भी
मांगता हूँ तुमसे आज वही कलम उसी स्याही वाली फिर से
देखो शायद मुहब्बत की स्याही वाली बोलत में,
कुछ बूंदे स्याही की बची रह गयीं हो कहीं .....
जानता हूँ कोई वास्ता नहीं अब तुमको मुझसे
फिर भी
क्यूँ नहीं पुरानी अपने उस किताब के पन्ने पलट देखती हो
कुछ तो कहती होगी मुरझाई वो कली कनेर की

Wednesday, March 17, 2010

जनम दिवस (मेरा)

समझ की डोर में
गाँठ पर गाँठ पड़ती जाती है
उंगलियाँ सुलझाने में हैं असमर्थ.
हो सकता है नाखून छोटे हैं,
मेरी उँगलियों के अभी.
उलझते सुलझते आज अनायास आभास हुआ
कि
एक बरस बीत गया
और
द्वार आ खड़ा हुआ मेरे,
रवि के रथ पर सवार होकर,
एक और जनम दिवस (मेरा).

घर में बिखरा सामन,
सपनों के टुकड़ो से ढकी फर्श,
समय कि धुल से छिपी यादों की तस्वीरें,
भावना की अध्-जली काली लकड़ियाँ,
और बीचों बीच, डोर में उलझा बैठा मैं
ऊठुं कैसे पहुंचूं द्वार तक,
करूँ कैसे मेहमान का स्वागत ?
साल में एक ही बार तो आता है ये प्रिय मेरा
बस एक दिन हंस कर मेरे साथ बिताने के लिए
हर बार की तरह, कैसे हंसकर द्वार खोल दूँ घर का इसबार ?
हंस कर कैसे व्यक्त करूँ खुसी उसके आगमन पर ?

क्यूँ न जिद्द की झाडू उठा
साफ़ कर दूं घर को
क्यूँ न बाहर कर दूँ इन बेकार की चीजों को
क्या मोल है ऐसी उलझी हुई समझ की डोर का,
ये तुकडे भी तो याद दिलाते रहते हैं टूटे सपनों के बस,


या कह दूं आगंतुक से
ना आ इस बार द्वार नहीं खोलूँगा मैं
घर छोड़ कर या चला जाऊं मैं कहीं दूर टहलता

....

Tuesday, March 16, 2010

प्रतीक्षा

समझ की मथनी से
आत्म मंथन करते करते
जाने कब ऐसा हुआ
कि मस्तिष्क कि सतेह से भाप बन
शब्दकोश के सारे शब्द
एक एक करके छु हो गए |
मैं अकिंचन
आज आ बैठा कविता तेरी चौखट पर
सारी रात तेरी झोपड़ी के पट को
टक टकी बांधे देखता रहा
तू द्वार खोलती ही नहीं |
तुझ गरीब की झोपड़ी के टूटे छप्परों
से छन छन कर अन्दर जाती चाँदनी
से भाग भी न हैं मेरे
कि एक झलक भी तेरी पालूँ |
बहार पड़ी चारपाई बार बैठा
सारी रात
भावना कि लकड़ियों पर हाथ सेकता
ठिठुरता
कांपता मैं
प्रतीक्षा कर रहा हूँ
पट के खुलने का |
शून्य मेरी आत्म का
कदाचित तू मुखरित कर दे
अभिव्यक्ति की सीमाओं के आगे जाकर
आत्म और बाह्य शरीर के बीच के व्योम को
भर दे |

ey कविता एक anurod बस इतना सा है
अपनी चौखट से khaali न लौटा मुझे
मुझको भी अन्दर आने का
पावन एक अवसर दे ...

Thursday, March 11, 2010

तिनका तिनका टुकड़ा टुकड़ा

तिनका तिनका टुकड़ा टुकड़ा चुन चुन के पैगाम लिखा
इक ख़त अपने दिल की बातों का हमने तेरे नाम लिखा

तुमको देखूं तो जाने छाती है क्या खामोशी
अब तक जो कुछ कह न पाया वो सब दिल को थाम लिखा

सच कहते है सब पीने वाले मय में कोई बात है
हमने भी आज मैखाने जाकर हाथों में ले जाम लिखा

रहता है तू दिल में मेरे है दिल के कितना करीब
एय बासिन्दे दिल की गलियों के प्यार का पहला सलाम लिखा

बेखुदी येही है शायद दीवानगी इसी का नाम
इक इक करके सब लिख गए हम अपना पता न नाम लिखा

कुछ ने कहा है चाँद

कुछ ने कहा है चाँद कुछ ने तुझे हूर कहा है
शायरों ने तेरे हुस्न पे कुछ न कुछ जुरूर कहा है

जिस जिस पर पड़ गयी कातिल तेरी नज़र
झुक झुक कर उसने तुझे बारहां हुजूर कहा है

एक हम ही हैं अकेले शायर सारे शेहेर में
जिसने तुझे एय साकी हंसकर मुग्रूर कहा है

कहते हैं अदा जिसे वो अपने शेरों में
आकर देख इधर हमने उसे बस गुरूर कहा है

उसके आगे एय साकी तेरा हुस्न कुछ नहीं
जिस शख्स को हमने अपनी आँखों का नूर कहा है

Wednesday, March 10, 2010

इक घडी हुआ करती थी

इक घडी हुआ करती थी (मेरी )
टिक टिक चलती रहती थी
कुछ न कहती कुछ न मांगती
बस समय दिखाया करती थी

इक दिन हंस कर के पूछ जाने किस कारण
क्यूँ चलती रहती हो तुम एय 'जान -ए -मन '
न्योछावर करती हो मुझपर आखिर क्यूँ
तुम अपना योवन, तन-मन-जीवन ?

बस इतना सुनना था की वो,यारों चहक गयी
सच कहता हूँ ,बिन पीये भरी दुपहरी बहक गयी
घूम घूम कर कांटे तीनों टूट गए यारों उसकी अंगड़ाई पर
जाने ऐसा क्या हुआ की दुनिया उसकी महक गयी

'एय प्राण प्रिये अपनाया तुमने
पूरी हुई जीवन की आस
पाषाण बन कर रह गयी थी मैं अहिल्या
अब पहुंची साजन के पास'

मैं भौचक्का रह गया हक्का बक्का
घड़ियाँ भी क्या बोलती हैं
हाल-ए -दिल यूँ खोलती हैं?

वो तुक रुक देख रही मुझे बस
ऐसे जैसे काम तीरों से घायल हुई वो
खो बैठी अपने आप पर वश

'देख प्यारी, प्राण दुलारी,
फुर्सत में करेंगे बातें ढेर सारी
समय बता दे
छूट न जाए मेरी लोरी'

पर कहाँ मानती जब ठान लेती हैं
घड़ियाँ भी तो आखिर स्त्री होतीं हैं
हार जाते हैं महारथी भी इनसे
जब ये नैनो में नीर भरकर रो देतीं हैं

अब हार गया मैं भी क्या करता
ये नहीं की मैं हूँ उससे डरता
चल दिए 'डेट' पर दोनों
इससे पहले की सदमे से उभरता

पकड़ मेरी कलाई पहुँच गयी बाज़ार में वो

कंगन झुमका पायल दिला दो
'मिसेस गुप्ता' की घड़ी सा चमकता 'दयाल' दिला दो
और फिर दुकानदार से मोल भाव करो तुम
झिक झिक करो दाम करा दो

अब थक हार कर घर लौटे जब
उचल जा बैठी टेबल पर तब
इक प्याली चाय पिला दो
इतना किया ये भी करो अब


.................................................
चक्रेश सिंह
16.2.2010
disclaimer: No offenses to women. This poem is just intended to make you laugh and nothing else...

खिलौना टूट गया

खिलौना टूट गया
मैं चुप रहा
खिलौना टूट गया
मैंने कुछ न कहा

माटी का पुतला था
टूट गया तो क्या ?
माटी का पुतला था
हाँथ से छूट गया तो क्या ?

टुकडे कब जुड़ते हैं बोलो
टुकड़ों पे कैसा रोना ?
टुकडे कब जुड़ते हैं बोलो
ये तो था इक दिन होना

कल फिर आयेगा खिलोने वाला
फिर लायेगे खिलोनों का भण्डार
कल फिर आएगा खिलोने वाला
फिर पूरा हो जायेगा मेरा संसार

खिलौना टूट गया
मैं चुप रहा
खिलौना टूट गया
मैं चुप रहा
मैं चुप रहा



...............................
चक्रेश सिंह
८/२/२०१०

जब कभी

जब कभी शाम का सूरज टिका हो किनारे पर
लौट रहे हों परिंदे
ढल रहा हो दिन
और
आँखें दब दबा जाएँ तेरी
उठने लगे भीनी खुसबू भींगे गालों से

जब कभी क्षितिज तक उंगलिया दौड़ाने पर भी
न मिले अपना खोया सितारा
और नहीं लगता हो मन जब
किसी और तारे में

जब कभी चाँद उफक से ताकता हो
पूछता हो बेकरारी का सबब
और जब एहसास होता हो की
बस यूंही मन हुआ था
आज रोने का
और कोई बात न थी
इक बहनa था अपना सितारा खोने का
बस रो पड़े, के यूँही मन था आज रोने का

जब कभी धड़कन टोकने लगे
समय की सूइयों से होती हो चुभन
और यूँही जब मन उदास हो
प्यारा साथी न कोई पास हो

तब गीत मेरा वो
तुम गुन गुना लेना
और भूल jaana तुम सब कुछ
dheere se मुस्करा देना

==============================================

Chakresh

Monday, March 8, 2010

एक ग़ज़ल तेरे नाम कर गए

लम्हा लम्हा याद कर सुबो से शाम कर गए
लो आज फिर एक ग़ज़ल तेरे नाम कर गए

हुस्न देख लिया हमने परदे को खेंच कर
इस बेखुदी में जाने क्या क्या काम कर गए

खूब चला सिलसिला छुप छुप के मिलने का
चर्चा मुहब्बत का शेहेर में आम कर गए

अपनी कब थी परवाह, जिल्लत से कब था डर
लो साथ अपने तुझको भी बदनाम कर गए

जुदा हुआ तू मुझसे , चाँद में पा लिया तुझे
तुझसे जुदा तन्हा जीने का इत्तेजाम कर गए

ये अनुरोध कैसा है

जलता दिया मंदिर का
पीपल के सीने से लिपटी असंख डोरें
आस्था परिभाषित करती
भीड़ मानसरोवर की
एक अद्रिस्य में
एक सर्व्वापी में
एक परमात्मा में
एक ब्रह्म में

गीता पुराण उपनिषद् धर्मं ग्रंथों
की दीवारों का किला
एक ऊंचा लाल झंडा
जीत का प्रतीक
या कदाचित आस्था का
संजोये अपने अन्दर
एक मूक
एक प्रश्नहीन भक्ति में लीन
एक जगराता से थक हार कर सोयी भीड़ को

पूछता हूँ मैं एक ही प्रश्न बार बार
क्या सोच थी जीवन मरण के सोच के पीछे
क्यूँ हथेलियों पर भाग्य रेखाओं ने खींचे
जन्म का स्रोत जो था है जब अंत वहीं पर
क्या उद्देष्य सिद्दा हुआ रचईता संसार को रच कर ?
आज मेरे प्रश्नों पर का उत्तर ये क्रोध कैसा है
नास्तिकता का आरोप मुझपर है क्यूँ
प्रश्नों को बदलने का ये अनुरोध कैसा है ?

Sunday, March 7, 2010

और कुछ नहीं

क्यूँ बांधते हो मुझको, चाहत की डोर पर
इक गाँठ छोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

बदनामों की कमी कहाँ, उल्फत की राहों में
एक नाम जोड़ जाऊंगा मैं और कुछ नहीं

नूर बना लिया क्यूँ मुझे मासूम निगाहों का
इक वादा तोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

फ़ना होगा तू, जुलूस होगा जनाजे पे
मुह मोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

मुसाफिर हूँ, रुकना रात तेरे शेहेर में
सुबह सबको छोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

दंगे

सुना रात मस्जिद गिरा दी की एक मंदिर बनाना है
मासूमो की लाशों पर किसी को खुनी वोट पाना है

दंगे शेहेर में काटे जिन्दा जलाये गए लोग कई
या इल्लाही ! हैवानियत का ये कैसा जमाना है

थर्राता है बचपन अँधेरे कमरों में छिपा हुआ
कौन जाने आज किस नन्हे यार का घर जल जाना है

नंगी तलवारों का नंगा शोर, कट्टे बन्दूंके हर हाथ में
गरीबी बेरोजगारी की आग दिखाने का ये अच्छा बहाना है


राम तुम हार गए रावन से युद्ध में
आओ देखो आज हर अयोध्या रावनो का ठिकाना है

Saturday, March 6, 2010

लम्हों को जिया करो

ढलती हुई शाम का मज़ा चक्रेश लिया करो
लम्बी बहुत है जिंदगी लम्हों को जिया करो

पीते नहीं हो तुम ये जानता हूँ मैं
दोस्तों की खातिर यूँही जाम उठा लिया करो

अफ़सोस रह जाए दिल को ये ठीक तो नहीं
साकी से दिल की बात खुल कर किया करो

साहिल तक आती लहेरों को बस रेत नसीब है
कुछ खोने की भूल कर बेफिक्र बहा* करो

वो देखो हंसने पे तुम्हारे बहार आ गयी
लोगों की फ़िज़ूल बातों से मायूस न हुआ करो

Thursday, March 4, 2010

कोई आईना दिखाता ही नहीं

खुद को देखे अरसा हो गया
की अब कोई आईना दिखाता ही नहीं

थक गया हूँ, देखता आया अब तक औरों को
की इस शेहेर में कोई चेहरा भाता ही नहीं

सोचा था ये जिंदगी तेरे नाम कर दूंगा
मेरी गली पलट कर तू आता ही नहीं

अश्को का सैलाब बहा रखा है
के ये दिल अब कोई बात छुपाता ही नहीं

खुद अपना ही जनाजा सजाये बैठा हूँ
कोई आगे बढ़ कर हाथ लगता ही नहीं

कल नए फूल लगा दूंगा

शाम हुई घर लौट आया मैं
मेरी राह ताकते थक गए गुल गुल्दाम के
सूख कर बेजान हो चुके सारे...
मेरे प्यारे
फूल सारे
निकाल फेंकता हूँ पुराने फूलों को
कल नए फूल लगा दूंगा
कल नए फूल लगा दूंगा

Let there be some sun shine

‘I love my country’ is probably the second most common phrase for a youth of today to say (of course ‘I love you’ being the first). The painful aspect attached to both the phrases is that most of times the person who utters these seemingly simple words, does not even realises the idea behind love. Well, though this is what I feel. One may disagree with me.
Come with me on a tour, and let’s see what we find out. Think of a compartment of a train, where a heated discussion is going on. Topic? Any guesses? Well yes, politics! of course. What do we talk most of the time? I do not even need to bother myself writing all that, you know already. The point is let say, there are thousands of trains running at every moment of time across our vast, diverse nation and let say, there are thousands of such compartments where such heated discussions are going on. Who is the speaker? And who is the listener? Where does, such talks lead us to? And what exactly is the outcome? Well these are the questions that make me feel ten times whenever I decide to pick up my pen and write something about politics, crime, corruption and other hot topics. May be this is the reason why so many parent around our nation do not want their wards to join any other field other that engineering, medical, journalism or fashion designing or anything that is in no way remotely attached to the concept of serving the nation and its people without any self interest. Well some enthusiasts move forward and decide to join the Army, administrative services etc but there too after some years of experience when they find themselves in the midst of corrupt officials and peers, the idea of nation and its people starts losing its meaning and the vicious circle of an innocent child turning into a bright student, then to a handsome enthusiastic hardworking honest patriot and then finally turning into a passionless aimless tortured government servant continues. On one hand this metamorphosis takes place and on the other, the society keeps adapting itself with the changing scenarios.
Once I asked a stranger when he was about to wear his shoes, “sir, have you ever put on a shoe in the wrong foot, say, the left one in the right and the right one in the left”. He smiled at me and said, “What are you talking? I am not insane, one always has that much common sense” Well, I feel probably because of this wide spread common sense only any parent decides to make their son an engineer and daughter a doctor. You see common sense is too common these days. When these young boys and girls reach their college, they take no time to realise that the educational system is rigid and that there is a need for change. And by the time any change takes place they prefer to close themselves in their rooms with their lap tops and PCs and search for soul mates on Orkut and facebook and also keep themselves updated with Mr. Tharoor on twitter. These students are dying to say ‘I love you’ to the first friend request they get from an opposite sex. Obviously they are now fed up saying ‘I love my country’ at school assembly prayers, college has to be different after all.
Keeping the sarcastic remarks apart and coming back to the point where we started- the degradation of society, where are we headed? A 7-9 % GDP growth with India shining only at the drawing rooms of the industrialists and mafias. The ever rising food prices, unregulated oil prices and the hungry eyes of a farmer looking for their representatives who never turned back after winning the elections. India shinning with national political parties promoting anarchy, and the opposition busy talking about Ram temple and staging walkouts every now and then. India shinning with the youth busy playing mafia war on Facebook and hailing Tendulkar as God. India shinning with M F Hussain accepting Kuwait’s nationality. India shinning with farmers committing suicides.
If we try and look into the cause of such a misbalance in the society today, we can see that it’s not the politicians or a hand full of corrupt officers who are at the root of all this. It’s not a system that has flaws. It’s not that we would have been different if something else were there in our constitution. I personally feel, it’s the human nature that is intrinsically corrupt and greedy. Everyone seeks for freedom. One’s freedom is restricted only by the freedom of another’s. Sitting in a rail compartment if I wish to stretch my arms I will have to see if I do not touch the fellow passenger sitting beside me, he may have objections. With such a huge population, with so many passengers conflicts are but nature. Does that mean all the wide spread corruption, violence, and other such issues are justifiable? Of course not. If we are looking for a better society and we realise that the cause of the wide spread discord is nothing else that our intrinsic selfish and greedy nature, then the only way left is probably to except the facts. Let us say without any shame that service without self interest is not possible. Let us come forward and except that what we expect from the leaders and NGOs and reformers is too much. Above all let the youth log out themselves from the virtual world and come out of their rooms. Let there be some sun shine, let there be some rain.

Wednesday, March 3, 2010

जीवन के रंग रूप


सुख दुःख के घेरे
जीवन के रंग रूप
माँ के आँचल की छाँव
कहीं चिलचिलाती धुप

चाहने वालों के मेले
गुमनामी का विराना
कोशों तक फाली चुप्पी
खुद से ही बतियाना
रुन्धता गला
यूंही ही आदतन मुस्काना
दुहराना बार बार गीता का
ढूढना ईश्वर स्वरुप

सुख दुःख के घेरे
जीवन के रंग रूप
माँ के आँचल की छाँव
कहीं चिलचिलाती धुप

अनुमान आज से ही
चित्त को चिता की ताप का
कर्म-तुला पर
लेखा जोखा पुण्य-पाप का
ये काव्य है परिणाम
मन से उठते भाप का
आगई आज पृष्ठ पर
हृदय की भावना अनूप


सुख दुःख के घेरे
जीवन के रंग रूप
माँ के आँचल की छाँव
कहीं चिलचिलाती धुप

आज का अर्जुन


कुछ देर से ठहर गया हूँ
गया हूँ चलना भूल
जाने क्या सहता रहा है हृदय
चुभा कौन सा शूल

किस कुरुक्षेत्र का अर्जुन हूँ मैं
लेने हैं किनके प्राण
कौन सी गीता गूँज रही कानों मनी
सिद्ध करना है आखिर कौन सा संधान ?


जलता है मन धुंवा उठता हृदय में
पर पीड़ा समझे कौन ?
गहुँ किसके चरण आज मैं
केशव भी हैं मौन ?


चाह नहीं मुझको कुछ पा लूँ
या करूँ श्रेथता सिद्ध
अपनों के लहू चीथड़ो से ढक दूं धरा को
नोचे उनको गिद्ध


यदि गांडीव धरी धरा पर
क्यूँ उकसाते हो मुझको
व्यर्थ हुंकार भरते हो क्यूँ
क्यूँ जागते हो मुझको ?


नहीं जानते क्या तुम इतना भी
लहू पीते हैं ये तीर
नहीं रोकते रुकते हैं किसिके
उठ जाते हैं जब मुझसे वीर !


आज अगर मैं चुप शांत खड़ा हूँ
और धरा है मौन
नहीं समझ पाओगे तुम
समझा है अब तक कौन?


सृष्टि के नीयम सिद्धांता
एक शून्य जुड़ा है संग
विस्तार देख चुका हूँ उसका
रह गया हूँ निःशब्द औ' दंग


कुछ करूँ भी तो शून्य है सब
न करूँ भी तो शून
देख सब कुछ सोच रहा हूँ
दिन बिताओं कैसे आखें मून

क्या धेय जीवन का है
जब नहीं है कुछ उस पार ?
जब व्यर्थ है चल अचल औ'
नश्वर सब संसार


क्यूँ नहीं समझता है कोई
बात है गंभीर
कहाँ खोलूँ कुंठित मन को
हृदय दिखाओं चीर




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चक्रेश सिंह

आज का अर्जुन

कुछ देर से ठहर गया हूँ
गया हूँ चलना भूल
जाने क्या सहता रहा है हृदय
चुभा कौन सा शूल

किस कुरुक्षेत्र का अर्जुन हूँ मैं
लेने हैं किनके प्राण
कौन सी गीता गूँज रही कानों मनी
सिद्ध करना है आखिर कौन सा संधान ?


जलता है मन धुंवा उठता हृदय में
पर पीड़ा समझे कौन ?
गहुँ किसके चरण आज मैं
केशव भी हैं मौन ?


चाह नहीं मुझको कुछ पा लूँ
या करूँ श्रेथता सिद्ध
अपनों के लहू चीथड़ो से ढक दूं धरा को
नोचे उनको गिद्ध


यदि गांडीव धरी धरा पर
क्यूँ उकसाते हो मुझको
व्यर्थ हुंकार भरते हो क्यूँ
क्यूँ जागते हो मुझको ?


नहीं जानते क्या तुम इतना भी
लहू पीते हैं ये तीर
नहीं रोकते रुकते हैं किसिके
उठ जाते हैं जब मुझसे वीर !


आज अगर मैं चुप शांत खड़ा हूँ
और धरा है मौन
नहीं समझ पाओगे तुम
समझा है अब तक कौन?


सृष्टि के नीयम सिद्धांता
एक शून्य जुड़ा है संग
विस्तार देख चुका हूँ उसका
रह गया हूँ निःशब्द औ' दंग


कुछ करूँ भी तो शून्य है सब
न करूँ भी तो शून
देख सब कुछ सोच रहा हूँ
दिन बिताओं कैसे आखें मून

क्या धेय जीवन का है
जब नहीं है कुछ उस पार ?
जब व्यर्थ है चल अचल औ'
नश्वर सब संसार


क्यूँ नहीं समझता है कोई
बात है गंभीर
कहाँ खोलूँ कुंठित मन को
हृदय दिखाओं चीर




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चक्रेश सिंह

Tuesday, March 2, 2010

रंग अकेलेपन के


जब भी अकेला हो जाता हूँ
हूँ न जब हंस पाता
तब याद बहुत आती हो
तब याद बहुत आती हो -2

सपनो में जब जागी आँखों से
मैं दूर निकल जाता हूँ
चिंताओं की तोड़ जंजीरें जब
स्वतंर्त्र स्वयं को पाटा हूँ
तब याद बहुत आती हो -२

मधुबन में जूही कलियाँ
जब हैं पवन संग लहराती
डोर तोड़ जब पतंग कोई
नब है खो jaati
तब याद बहुत आती हो -२

भूली कोई धुन बन्सी की
याद मुझे जब आ जाती
यमुना तीरे गोपी जब कोई
मटकी भरने आती
तब याद बहुत आती हो -२

जब नीले आकाश पर
लाली शाम की छाती
साड़ी रात जब चाँद की
है चाँदनी जगती
तब याद बहुत आती हो -२

रिश्ते स्वार्थ के जब
तान तान तीर चलाते
पौरुष कवच बेद तीर जब
हृदय चीर हैं जाते
तब याद बहुत आती हो -२

जब ठोकर खा गिरता हूँ
और fir सम्हालता हूँ
घावों पर जब खुद ही
हांथों से मलहम मलता हूँ
तब याद बहुत आती हो -२
त्योहारों में दीपों रंगों के
जब होते हैं बेरंग अँधेरे
भीड़ से दूर जब एकांत मांगते
आत्मा-हृदय-तन -मन मेरे
तब याद बहुत आती हो -२

विना की बेसुरी तान पे
राग जब अर्थ खो जाते
जीवन के सपने सागर जब
व्यर्थ अधूरे रह जाते
तब याद बहुत आती हो
हाँ, तब याद बहुत आती हो
तब याद बहुत आती हो.....

Monday, March 1, 2010

ये बालक

ये बालक

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जवानी की देहलीज पर खड़ा
समय के एक धक्के की प्रतीक्षा में
ये बालक

समझ कुछ दूर साथ चली पर
थक रही है अब लड़खड़ा रही है
नशे में धुत एक शराबी सी .
जलती आँखों से नींदे गायब
थके शरीर में सोने की इक्षा का अभाव
कुछ करने न करने में अंतर नहीं कर पाता
समय की छोटी सी खिड़की से
एक टुकड़ा आसमान यथार्थ का देख कर लौटा
ये बालक

जीवन के द्वंदों से जूझता
हांफता काँपता डरता गिरता सम्हलता
आगे बढता
ये बालक

डरता हूँ मैं
कहीं जो ये बोझ न उठा पाया
कहीं जो ये औरों की तरह खुद को न बदल पाया
कहीं कुछ बचपना शेष रह गया,
समय की मार से खुद को बचा कर यदि
कैसे फिर ये चल पायेगा सत्य की नग्न तलवार पर ?
सपनों का आकाश
तारों से सजी रात
और इसपर चमकता चाँद
जो इक इक कर के टूटने लगे
इस आकाश के तारे
जो घुलने लगे चाँद
सत्य के उजाले में
और जो खो jaaye ये सपने सारे
क्या वो रह पायेगा जो आज है
ये बालक ?
क्या ये एक क्षति नहीं होगी
क्या ये एक हत्या नहीं होगी
जो दम तोड़ दे
ये बालक ?
ये कैसा सत्य की जिसमे
कोई बालक नहीं
ये कैसा बड़ो का समाज
की जिसमे भावनाओं पर बाँध है
ये कैसी रात
की जिसमे सबका एक ही चाँद है ?

Sunday, February 28, 2010

देखो तो होली आई है

उठता शोर मोहल्ले में देखो तो होली आई है
रंगों में छिपा चेहरा पहचानो, अपना ही कोई भाई है

स्वेट लिबाज पर रंगों की अद्भुत ये रंगोली देखो
लाल पीले हरे नारंगी छीटों की ये होली देखो
रंगों ने मिलकर कुछ 'निरर्थक' सी आकृति बनाई है
उठता शोर मोहल्ले में देखो तो होली आई है .....................

नहीं कहता अलविदा तुमसे

नहीं कहता अलविदा तुमसे
अभी कुछ उद्देश बाकी है
कुछ कहानी आगे चल चुकी जरूर है
कुछ अधूरा कुछ शेष बाकी है

कौंध रही है रह रह कर
एक बिज़ली नसों में
पिघलती मोम के साथ जलते शरीर में
अब भी कुछ चक्रेश बाकी है

Thursday, February 25, 2010

तब कविता लिखता हूँ

भोर में जब लालिमा सूर्य की
है नब में छा जाती
थाल सजा आरती की मंदिर में
जब तुम छम से आ जाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

चांदी बदन पर लिपटी साडी
जब पावन आँचल लहराता
मारे शर्म की झुकाती पलकें
चेहरे का रंग गहराता
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

देख तुझसी अद्भुत छवि को
जब देवी मूरत मुस्काती
मंदिर के चौखट को छू कर
जब तुम लांघ अन्दर जाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

प्रभु मंदिर में मन ही मन
जब तुम मुझको अपनाती
फिर देख मुझे अनजान बनकर
सखियों संग हंसती बतियाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

मन मोहनी हृदय वासिनी
आज तुम्हे बतला दूँ
कहे बिना कुछ तुमको
चीर हृदय दिखला दूँ
कविता बना कबसे मैं तुमको
मन मंदिर में रखता हूँ
याद आती है जब तू मुझको
तब कविता लिखता हूँ
हाँ तब कविता लिखता हूँ ...

Monday, February 22, 2010

आखर लता


खाली कमरा
बंद दरवाजे
चुप्पी देर रात की..........

बंद खिड़की
खुला पर्दा
आँख प्यासी बरसात की.....

कोरा कागज
जलता दिया
भूखी कलम किसी बात की ....

शांत चित्त
मद्धम साँसे
कहानी यही हर रात की ........

बंद मुट्ठी (पर)
टिकी ठुड्डी
कामना मन में प्रभात की


ठंडी पवन
चींखते जीव
तस्वीर समाज के हालात की


जीवन दिष्टांत
वर्त्तमान अतीत
सीमाए मानव जात की

भावना पुष्प
आखर लता
कविता ये अज्ञात की


विधि विधान
गीता कुरान
संस्कार शिक्षाएं तात की

Friday, February 19, 2010

आप ही बताइए'


'हाँ, गलत है जो हो रहा है ऐसा नहीं होना चाहिए '
कहता है एक आदमी, कभी आप किसी पान की दूकान पर तो आइये
और संग दो चार अधेड़ और खड़े देखेंगे आप
कहते हुए की भाई साहब, तनिक पान इधर भी तो बढ़ाइए'

देख रहा था दूर से मैं भी वहीं बैठ कर
क्या बात है ये आज गए नहीं क्या अपने दफ्तर या दूर है इनका घर ?
पर तर्क औ वितर्क हर बात पर करना भी नहीं चाहिए
सुन रहा था दूर से मैं , आप भी उसकी बातों का लुफ्त उठाइये


'क्या कहें की अब राजनीत ही जब बदल गयी
महंगाई बढती ही जाती आती जाती सरकारें कई
और उसपर तबादले इमानदार अफसरों के, ऐसा नहीं होना चाहिए
अन्याय है अंधेर है ये, अजी भाई साहब आप ही बताइए'

'कोई बच्चों को पढाना चाहे भी तो आखिर क्या करे
जरा देखिये तो फीस कालेजों की, और फिर महंगाई दरें
और इसपर आप आम आदमी पर 'anti corruption' का विधेयक लेकर आईये
किराया घर का, बिजली-पानी का बिल ऐसे में क्या खाइए क्या बचाइए'

'तंग है वर्दी पुलिस की और है तख्वा बहुत कम
बीमार होकर, घर गृहस्ती तोड़ दे खुद बा खुद दम
वसूली करता है हवलदार सच पर दूसरा सच ऐसे ही न ठुकराइए
खरचा कैसे चलेगा जो आप प्रोजेक्ट पर 'कमीशन' न कमाइए'


'कभी ढूँढने निकलना पड़े जो आप को अपनी प्यारी बेटी को वर
पहले जेब भर लो बेंच के सर्वस्व अपना, छत अपनी औ अपना घर
सबको जमीन, गाडी, दहेज़, मोटी रकम बस चाहिए
भ्रूंड-हत्या भी गलत है , लाचार पिता को अब आप ही समझाइये'

'बास आती है यहाँ हर गली के नाले हैं खुले
खँडहर है किसान का, नेताओं के घर हैं किले
मुझको नहीं अब और खाना आप ही पान खाइए
पूछता हूँ खुद से मैं ये जीवन आखिर क्यूँ जीना चाहिए?'




चक्रेश सिंह

Wednesday, February 17, 2010

वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में


रात फिर शोर उठा था, कहीं पर, जाने अंजाने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

जीवित पलों की आपाधापी
निद्रा में अबतक थी जिसने नापी
जीवन बीता था जिसका अब तक
बस सोने और सुस्ताने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

वो कहता है 'मैं' बिन जीवन-सार अधुरा
अंधा है जग ये सारा संसार पूरा
नहीं समझते लोग यहाँ पर
रहस्य है कुछ 'मैं ' में अंगूर के दाने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

समय की पदचाप सुनता
जीवन सार आप बुनता
दिखा गया वो इक गाँठ साकी को
जीवन के ताने बाने में
सुना है कल वो खूब हंसा था नुक्कड़ पर मैखाने में

..........................

चक्रेश सिंह
१६/२/२०१०

Monday, February 15, 2010

कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को देख रहा हूँ


घडी की टिक टिक सुनता
कमरे में खिड़की से चिप्पकी रखी मेज पर
बैठा
कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

सीने में अंगार सुलगता रहा दिन भर
और अब
अंतर से उठते धूँये में
खांसता,
आँखें मलता
सांस लेने को तड़पता
खिड़की पर आ बैठा मैं
कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

सूखे पेड़ की एक डाल पर अचानक
यूँही आ बैठा एक गिद्ध
सबसे ऊंची टहनी पर
पंजों से कस के दबोंच कर दाल को ...

कुछ धुंए का असर है की
आँखें धुंधला गयी हैं
ज्यादा कुछ देख नहीं पाता मैं

फिर कुछ देर वहीँ बैठ कर
वो गिद्ध न जाने कौन सी अपनत्व की ढली
घोलता रहा मेरे मन में
अंतर की आग बुझने लगी मानो
धीरे धीरे ..

जीवन का एक सच
खिड़की के इस पार
जलाता सुलगता देख चूका मैं
जीवन का एक सच
खिड़की के उस पार
उस ठूंठे पेड़ की स्थिरता में देखा रहा हूँ
पर जीवन-गणित में
आधा-आधा एक कहाँ होता है बोलो ?
ये सच भी,
अभी पूरा कहाँ है बोलो?

गिद्ध कुछ देर बैठा रहा
और फिर उड़ गया
एक शून्य में
टहनी कुछ देर हिलती रही
और फिर वही स्थिरता
कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

समझ की परिधि पर
बेबूझ पहेली सा गूमता रहा एक ही दृश्य
उस गिद्ध का यहाँ तक आना
टहनी को हिला
फिर शून्य वापस चले जाना
टहनी का कुछ देर हिल कर
फिर वही स्थिरता पाना

सृष्टि के नीयम
और इन्में बंधा जीवन
भूमिका क्या है उस ठूंठ की, खिड़की के उस पार?
भूमिका क्या है इस ठूंठ की, खिड़की के इस पार?


किन गिद्धों की प्रतीक्षा है
इन ऊंची सूखी टहनियों को?

कुछ दूर खड़े एक ठूंठे पेड़ को
देख रहा हूँ
मैं .....

Sunday, February 14, 2010

सागर से मैं मिल आया





सागर के मौन पर लगा आया
आज मैं एक और
कडवा प्रश्न.........................................
परिविस्तार की प्रशंसा सुनाने का आदि
टुक रुक आज निहारता रहा
चुप चाप मुझे......................................


'दासी' लहरों का अहंकार
यौवन का नंगा शोर
रेत से ढकी पावन धरा की छाती पर
चढ़ कर उतर जाना
द्रित्राष्ट्र सा चुप केवल देख भर रहा है सागर
दुर्योधन की लज्जा हीन सभा
और द्रोपदी का चींखना ....चिल्लाना

प्रकृति का नियमानुसार जारी चाल चलन
और इस बीच एक दिन
लहरों का सीमायें लाघं उत्पात मचाना
'सुनामी' के शोर में
खो जाना न जाने कितनी चीख चीत्कारों का
लुप्त हो जाने, क्षण भर में, रेत के ..न जाते कितने मकानों का ....

मानवी क्रीडाओं* के वृत्त के केंद्र पर रखी आस्था
अनुत्तरित प्रशनो* के बेबूझ उत्तरों से
चक चौंध मानवता की आँखें ... सत्य से अपरिचित आज भी

इस बीच रेत के टूटे घर पर बिलखते
अनाथ असहाय अबोध एक बालक का केंद्र से आँखे फेर लेना
और जीवन वृत्त पर चक्कर लगाने से मना कर देना
उसका जीवन आखिर क्यूँ एक अपवाद है ?

आज लगा आया मैं सागर की स्थिरता पर
एक और प्रश्न

पीडाओं का पिछले जन्मों से लेखा जोखा बताकर
'केशव' का हंस कर आगे बढ़ जाना
'गीता' का एक बेबूझ पहेली बन आज भी मानवता मध्य इठलाना
"धर्मं की बार बार अधर्म पर विजय " की लोकोक्ति पर
धर्मं संग सदा साथ खड़े अधर्म का चुप चाप मुस्काना

दिन रात के दोहरे चहरे संग चलते जीवन
से निकल कर आज टहलता
सागर से मैं मिल आया
कुछ कडवे प्रश्नों मध्य उसे भी बेबस पाया .........................

Sunday, February 7, 2010

बैठी हूँ यादों के आँगन में


बैठी हूँ यादों के आँगन में
लम्बे अपने बाल फैलाए
दादी चोंटी बाँध रही है
माँ चूल्हे पर भात पकाये

"फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये "

बैठी हूँ यादों के आगन में
ओखल पर नैन टिकाये
खट-खट ओखल बोल रही है
और माँ कुछ गुन गुनाए


"
फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये
"

बैठी हूँ यादों के आगन में
सखियों संग अपने हाथ फैलाए
कोई मेहंदी लगा रहा है
माँ ख़ुशी में dhol बजाये



"
फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये
"

बैठी हूँ यादों के आँगन में
थाल में आरती सजाये
बेटा घर आ रहा है
सोच सोच जी हर्षाये

"
फिर समय के पहिये धूल उड़ायें
आँखें धुन्धलायें
और मुझे कुछ याद न आये
और मुझे कुछ याद न आये
"

Wednesday, February 3, 2010

कुंठित शिक्षक


एक टूटी चप्पल पहन कुछ दूर टहलता जाता हूँ
स्वयं को जूते वालों की भीड़ में अकेला पाटा हूँ

सूट-बूट में लिपटे जन को देख- देख घबराता हूँ
फिर कुछ आगे आगे बड़ यमुना तट पर सुस्ताता हूँ

परिस्थितियों से जो करूँ पलायन, मैं कायर कहलाता हूँ
अभाव सामर्थ का सहता आया, साहस का न सह पाता हूँ
विराट रूप ले परुष राम बनू तो, मैं ही राम बनाता हूँ

(पर) नही जोड़ता अब टूटती साँसों को
और न ही चप्पल सिलवाता हूँ

प्रतिदिन उदर आधा भर कर के यमुना तट तक आ जाता हूँ
शिक्षक हूँ मैं है राष्ट्र ये मेरा सोच सोच कुंठित हो जाता हूँ
एक टूटी चप्पल पहन कर कुछ दूर टहलता जाता हूँ .......................

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...