समय की तेज धार पे चलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया
समय की तेज धार पे चलता चला गया
कभी किसी राह पर कोई मिला नही
आँखें किसी यार के लिए तरस गयीं
कभी भरे बाज़ार से निकलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया
प्रशनों के माया जाल मैं बच सका नही
ओल्झा रहा,मौन रहा कविता लिखी (*likha) कभी
mrigtrishda* उत्तरों की देख मचतला चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया
हवा की गुब्बारों से लोग मिले सभी
फूटते-उड़ते रहे वो, जिनकी डोरें थी हाथ में कभी
खाली हाटों को नयन अश्रू से मलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया
क्यूँ मन ये मेरा खुद में मुझे पाता नही कहीं ?
क्यूँ तन ये मेरा नाम भर बस है और कुछ नही ?
खुद से खुद के द्वन्द में, खुद में ढलता चला गया
मैं खुद ही अपने आप को छलता चला गया
समय की तेज धार पे मचलता चला गया
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...
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