समय के साथ अनुतरित प्रश्नों का सार्थकता खोते जाना
विश्वास की बैसाखी पकडे उत्तरों में केवल एक मौन पाना
आज क्षितिज पर आँखें टिकाये, स्थिर खड़ा मैं
फिर वही प्रश्न पूछता हूँ, आखिर कब तक यूंही खुद को बहलाना?
ईश्वर, भागवद, पूरण, धर्म की चौ दिवारी के अन्दर बैठी ये सभ्यता
मौन खड़ी प्रश्नों को सुन कर, कहाँ है इसकी महान निर्भयता
हृदय के इस पीड़ा और आलाप का कारन बनी ये
चुप लज्जाहीन खड़ी सुन रही, है क्रूर ये है इसकी निर्दयता
मृग त्रिश्नाओं के मध्य खड़ा मैं सत्य का प्यासा
संग मरती जाती प्रतिपल मेरे, उसे जानने की मेरी जिज्ञासा
ये निर्दयी समाज अधूरा रह जाएगा चौ दिवारी में
कोई समझाओ अब इसको जीवन की सच्ची परिभासा
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
Friday, January 8, 2010
ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...
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