Tuesday, February 2, 2010

समय कभी नही बढ़ता


पेंसिल के छिलके
जमीन पर पड़े हुए
और बगल में सफ़ेद पीसी हुई chalk*
सर झुककर देख रहा था ..."चुप चाप"

याद आ रहा था बचपन
वो स्कूल का एक दिन

वो नन्हे हाथ
वो पेंसिल
वो पेंसिल की नोक
नोक का टूट जाना
वो नयी नोक बनाना
वो चिलाकर रोना
वो खिल खिला कर हँसना

इस बीच एक तीव्र स्वर
एक फटकार
एक चीख
झक झोर रही थी मुझे
भूत से निकल कर
वर्त्तमान
में लाने को तत्पर

पर उस पीसी chalk
उस पेंसिल के छिलके से
आँख हट नही रही थी ..."उस दिन"

जमीन की सतह पर कुछ नही बदलता

समय कभी नही बढ़ता
जमीन समय से है अनजान
वर्त्तमान ही भूत था
भूत ही था वर्त्तमान


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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

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