अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
Tuesday, February 2, 2010
समय कभी नही बढ़ता
पेंसिल के छिलके
जमीन पर पड़े हुए
और बगल में सफ़ेद पीसी हुई chalk*
सर झुककर देख रहा था ..."चुप चाप"
याद आ रहा था बचपन
वो स्कूल का एक दिन
वो नन्हे हाथ
वो पेंसिल
वो पेंसिल की नोक
नोक का टूट जाना
वो नयी नोक बनाना
वो चिलाकर रोना
वो खिल खिला कर हँसना
इस बीच एक तीव्र स्वर
एक फटकार
एक चीख
झक झोर रही थी मुझे
भूत से निकल कर
वर्त्तमान
में लाने को तत्पर
पर उस पीसी chalk
उस पेंसिल के छिलके से
आँख हट नही रही थी ..."उस दिन"
जमीन की सतह पर कुछ नही बदलता
समय कभी नही बढ़ता
जमीन समय से है अनजान
वर्त्तमान ही भूत था
भूत ही था वर्त्तमान
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ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...
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