Wednesday, March 17, 2010

जनम दिवस (मेरा)

समझ की डोर में
गाँठ पर गाँठ पड़ती जाती है
उंगलियाँ सुलझाने में हैं असमर्थ.
हो सकता है नाखून छोटे हैं,
मेरी उँगलियों के अभी.
उलझते सुलझते आज अनायास आभास हुआ
कि
एक बरस बीत गया
और
द्वार आ खड़ा हुआ मेरे,
रवि के रथ पर सवार होकर,
एक और जनम दिवस (मेरा).

घर में बिखरा सामन,
सपनों के टुकड़ो से ढकी फर्श,
समय कि धुल से छिपी यादों की तस्वीरें,
भावना की अध्-जली काली लकड़ियाँ,
और बीचों बीच, डोर में उलझा बैठा मैं
ऊठुं कैसे पहुंचूं द्वार तक,
करूँ कैसे मेहमान का स्वागत ?
साल में एक ही बार तो आता है ये प्रिय मेरा
बस एक दिन हंस कर मेरे साथ बिताने के लिए
हर बार की तरह, कैसे हंसकर द्वार खोल दूँ घर का इसबार ?
हंस कर कैसे व्यक्त करूँ खुसी उसके आगमन पर ?

क्यूँ न जिद्द की झाडू उठा
साफ़ कर दूं घर को
क्यूँ न बाहर कर दूँ इन बेकार की चीजों को
क्या मोल है ऐसी उलझी हुई समझ की डोर का,
ये तुकडे भी तो याद दिलाते रहते हैं टूटे सपनों के बस,


या कह दूं आगंतुक से
ना आ इस बार द्वार नहीं खोलूँगा मैं
घर छोड़ कर या चला जाऊं मैं कहीं दूर टहलता

....

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

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