Sunday, March 7, 2010

और कुछ नहीं

क्यूँ बांधते हो मुझको, चाहत की डोर पर
इक गाँठ छोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

बदनामों की कमी कहाँ, उल्फत की राहों में
एक नाम जोड़ जाऊंगा मैं और कुछ नहीं

नूर बना लिया क्यूँ मुझे मासूम निगाहों का
इक वादा तोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

फ़ना होगा तू, जुलूस होगा जनाजे पे
मुह मोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

मुसाफिर हूँ, रुकना रात तेरे शेहेर में
सुबह सबको छोड़ जाऊँगा मैं और कुछ नहीं

3 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूब, लाजबाब !

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

Mahaguru said...

dil ko choo gayi

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...