तारीफ़ करता था शेरों की जो अपने नहीं थें
लिखता था जुमले जो कभी छपने नहीं थें
करता था बागबानी अरमानों के बागों में
लगये वो फूल जो खिजाओं में पनपने नहीं थें
जुदा हुआ मुझसे ज़ालिम साया भी मेरा
मेरे पते के ख़त भी अब मेरे अपने नहीं थें
इन आखों में चुभते हैं हर पल ये तुकडे
टूटे जो पलकों पे, फकत सपने नहीं थें
खूब रोया लिपट कर जिनसे मैं पहरों
होश आया तो जाना वो अपने नहीं थें
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...
1 comment:
bahut hi sundar...
kya kahoon mann mohit ho gaya....
i'll wait for your next ones....
regards..
shekhar..
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