Thursday, May 13, 2010

क्या देखा है तुमने कभी

शाखों से गिरते पत्तों को क्या देखा है तुमने कभी,
एक गिरता है फिर अक और भी
एकदम वैसे ही...
बारिश में बींगते बच्चों को क्या देखा है तुमने कभी
माँ दौड़ती है उनके पीछे
और भींगती है एकदम वैसे ही
प्याली में राखी चाय को ठंडी होते क्या देखा है तुमने कभी
भाप उठती है और खो जाती है हवा में
एकदम उठते है
मेरी प्याली खाली क्यूँ है अब तक
माँ नहीं दौड़ती मेरे पीछे क्यूँ
क्यूँ बारिश की बूँदें नहीं भिंगोतीं मुझको अब
किस पत्ते के गिरने की राह देख रहा हूँ मैं

4 comments:

संजय भास्‍कर said...

क्यूँ बारिश की बूँदें नहीं भिंगोतीं मुझको अब
किस पत्ते के गिरने की राह देख रहा हूँ मैं

इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

संजय भास्‍कर said...

Maaf kijiyga kai dino busy hone ke kaaran blog par nahi aa skaa

nilesh mathur said...

बहुत सुन्दर रचना है, आज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी अच्छा लगा!

अरुण 'मिसिर' said...

बहुत मार्मिक रचना

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...