Friday, January 7, 2011

अब गिरनी है तब गिरनी है

टप टप करके गिरती बूदें
चिटक चिटक झड़ती दीवारें
धूल धूल हुआ हर पर्दा
खोखली पड़ गयीं मीनारें

गाँव की वो मज़ार पुरानी
सदियों से जानी पहचानी
अब गिरनी है तब गिरनी है
दीवारें हैं सब ढेह जानी

हरी काई स्याह हो गयी
गुम्बज़ की वो चमक धो गयी
चौखट पड़ी रह गयी अकेली
मेलों का वो बोझ सह गयी



अब गिरनी है तब गिरनी है
यादें भी हैं सब खो जानी

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

भावपूर्ण रचना अभिव्यक्ति ... आप इतना अच्छा लिखती है.. की पढ़कर मैं भी भावों की दुनिया में खो जाता हूँ .... आभार

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...