Friday, February 10, 2012

क्या नहीं जानता हद्द-ऐ-तन्हाई को

क्या नहीं जानता हद्द-ऐ-तन्हाई को

एक रिश्ता मगर फिर भी भारी लगे

कुछ कमी सी रही दिल के बाज़ार में

हर गली - हर शहर कारोबारी लगे


उतारता रह गया जन्म के हर करम

सोचता रह गया मैं यहाँ क्यूँ भला

कौन मुझमें समाया है mere siwa

कौन इतना हैराँ - परेशान है

एक पल को अगर ये भी मैं मान लूं

किसी विधाता का पुत्र हर इंसान है

तोभी कैसे ये गुत्थी khule tum kaho

क्यूँ ये hasti 'असल' से ही अनजान है

किस बड़े काम के ख़त्म होने तलक

यूँही चलता रहेगा ये तनहा सफ़र

'चक्रेश' संजीदगी की तरफ बढ़ रहा

एक प्यारी हंसी भी क्यूँ भारी लगे

2 comments:

Dev said...

Nice lines

vandana gupta said...

्सुन्दर प्रस्तुति।

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...