Friday, April 13, 2012

स्वप्न

एक नदी
एक पतली - लम्बी लकड़ी की नांव
और सुबह के उगते सूरज से
सिन्दूरी हुआ नदी का आँचल
नांव पे बैठा मैं पतवार चलता
चप्पू की हर चुम्बन पर,
शर्म से नदी सिहर सी जाती और भंवर बनती खो जाती
जाने कब लेकिन इस सब में
मैं नवका से अलग हुआ
और डूबता गया किसी और नए स्वप्न के भीतर
अब संभला तो मैंने पाया
खड़ा हुआ हूँ
एक नदी पर
बिन नवका - पतवार बिना
और दूर पर तुम बैठी हो
पीली सी इक साड़ी में
अपने बालों को बिखराए
फुर्सत में पाँव फैलाए
मैं उत्सुक चलता ही जाता
पास तुम्हारे
तुम हंसती पास बुलाती
तुम हो मैं हूँ नांव नहीं है
और ना डूबने का आश्वाशन
प्रेम ही होगा
प्रेम ही होगा
धाम कोई है
ये पावन पावन
मैं कान्हा हूँ
तुम मीरा हो
मथुरा है या है ब्रिन्दावन
स्वप्न लोक में
दिव्य लोक ये
जगमग जगमन देहक रहा है
मेरे उर में अब तक तेरा
पवन आँचल
महक रहा है
महक रहा है





2 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

बेहद खूबसूरत.............

आपके ब्लॉग पर पहली दफा आया हुआ.............
मान गए आपकी लेखनी को..

too good!!!

Anu

chakresh singh said...

Thank you sir..aap aaye..padha mujhko..saraaha...nahut shukriyaa...padhte rahiye...

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...