Monday, October 22, 2012

भागते भागते भागते भागते भागते भागते


जागते जीवन का एक एक पल भागते भागते भागते भागते भागते भागते बीत रहा है
अंतिम घड़ी ये दौड़ तड़पायेगी मैं जानता हूँ

ये सवाल उठाएगी
के क्यूँ भागे

क्यूँ नहीं किसी पहाड़ी पर खड़े होकर
नीचे बहती नदी में कंकड़ फेंकते हुए जिंदगी बिताई

क्यूँ नहीं सागर किनार हर शाम डूबते सूरज
के रंगों से आँखों को जी भर रंग जाने दिया

क्यूँ न शोर से दूर कहीं अकेले निकल सके
इक भागा दौड़ी का हिस्सा तुम क्यूँ बने कहो

मैं जानता हूँ ये दौड़ सवाल उठाएगी
और मैं इतना ही कह सकूंगा के
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जीवन की आप धापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं जो किया कहा माना उसमे क्या बुरा भला

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

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