Sunday, December 15, 2013

तपस्या

रात मेरी अंतर आत्मा ने पूंझसे प्रश्न किया:
ये इस तरह चाँद को लगातार क्यूँ देखते हो?



मैंने उत्तर देते हुए कहा:
अपने अंदर पनपते विष-वृक्षों की पत्तियाँ झुलसा रहा हूँ।

मेरे अंतर ने मुझसे फिर पूछा:
यह कैसे सम्भव है, ये चाँद की शीतल किरणे कुछ झुलसा सकती भला?

मैंने भी पलट कर कह दिया:
क्यूँ नहीं, नेहरू, इक़बाल, फैज़ जेल में रातों को इसी रौशनी को देखते थे और आने वाली सुबह की चाह लिए लिखा करते थें। यथार्थ में, अंतर में पनपते विष वृक्षों तक यही निर्मल किरणे पहुँच पाती हैं। मैं अपने अंतर में भूत की गलतियों को भुलाने के प्रयास में हूँ। हाँ, गलतियां तो की ही हैं मैंने और वो रह-रह कर मन छुब्ध कर देतीं हैं मेरा। चाँद की किरणों का लेप इन घावों को भर देगा … देखना तुम।

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...