Wednesday, July 23, 2014

घर में जबसे तंगी है मज़बूरी है


घर में जबसे तंगी है मज़बूरी है
रिश्तों में कुछ तल्ख़ी है कुछ दूरी है

हम चादर छोटी कर के कितना बचते
साँसों पर भी दो-आना दस्तूरी है

मैं शायर होकर के भी क्या क्या लिख दूँ
माँ की  सिसकी पर हर नज़्म अधूरी है

अबके तूफाँ में छप्पर ना बच पाया
किस मुंसिब की फ़तवों पे मंज़ूरी है ?

जिनसे बातें होतीं थीं वो कब रूठें
क्या जानूँ क्यूँ तनहा हूँ महजूरी है


बैठें हैं फ़ुरसत के सब दिन आने को
उनसे मिलने की तैयारी पूरी है



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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...