मैं क्या देख कर आया हूँ अब आप को कैसे बतलाऊँ। इतना ज़रूर समझ पाया के देश की समस्याएं यदि गाँव से शुरू होती हैं तो कहीं न कहीं दिल्ली काफी समय से काफी गहरी नींद में सोया रहा है, जो आज भी मेरा गाँव वहीं खड़ा है जहां कई वर्षों पहले था। स्कूल की इमारते हैं तो मास्टर नहीं, फसलें हैं तो उन्हें सींचने को पानी नहीं, बिज़ली कटौती इतनी के मोबाइल फ़ोन चार्ज नहीं किया जा सकता बाकी के काम का अंदाजा आप लगालें, सड़कें जरूर बनी हैं पर देखें के सड़कों से कितना कुछ आ जा सकता है इन गावोंमें।
गाँव के भोले लोग अपनी समस्याओं को खुद समझ नहीं पाते। मैंने कोशिश की कुछ परिवारों से बात कर के उनकी समझ को समझने की समझ में ये आया के वे बहुत कुछ समझना नहीं चाहते। दो बच्चे अभी कन्धों पे बैठ खेल रहे हैं तो तीसरा आने वाला है। उसे कहाँ बिठायेंगे ये प्रश्न बेतुका लगा उन्हें।
खैर कम शब्दों में इतना कह सकता हूँ के भारत का विकास अखबार पढ़ कर या टीवी देख कर नहीं समझा जा सकता है, हमें गाँव जाना होगा ।
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