अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
Saturday, June 25, 2011
कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं
कोई होता मुझसे कहने को
के कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं
अभी और भी मंजिलें बाकी हैं
ये कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं
हर शाम मैं ढलता सूरज सा
और रात विचरता चंदा संग
कोई साथ तो चलता चार कदम
और हंस कर कहता कुछ भी नहीं
इस पार ह्रदय दुःख पाकर भी
हंस लेता जी भर गा लेता
जो सुनता कोई हर कविता को
और अर्थ पूछता कुछ भी नहीं
मैं पूछ रहा हर चहरे से
चिंता कैसी किसका जीवन ?
एक मौन मिला बस उत्तर में
और कुछ भी नहीं कभी कुछ भी नहीं
इक उम्र पड़ी अभी जीने को
इक उम्र देख कर आया हूँ
बड़ी जोर-जोर से बातें की
और दे मैं सका अभी कुछ भी नहीं
कोलाहल चीत्कार शहर की
door धकेले है मुझको
भाग रहा मैं अपनी छाया से,
ढूंढ रहा मैं कुछ भी नहीं, हाँ कुछ भी नहीं
ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...
5 comments:
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Pauline
कोलाहल चीत्कार शहर की
door धकेले है मुझको
भाग रहा मैं अपनी छाया से,
ढूंढ रहा मैं कुछ भी नहीं, हाँ कुछ भी नहीं bahut
sunder prastuti.badhaai.
please visit my blog.thanks
BHAVPOORN SUNDAR RACHNA
बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...
Kuch bhi nahi hai, aur yahi to sabkuch hai...
Bravo, as always!
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