Saturday, June 25, 2011

कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं




कोई होता मुझसे कहने को
के कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं
अभी और भी मंजिलें बाकी हैं
ये कुछ भी नहीं ये कुछ भी नहीं

हर शाम मैं ढलता सूरज सा
और रात विचरता चंदा संग
कोई साथ तो चलता चार कदम
और हंस कर कहता कुछ भी नहीं

इस पार ह्रदय दुःख पाकर भी
हंस लेता जी भर गा लेता
जो सुनता कोई हर कविता को
और अर्थ पूछता कुछ भी नहीं

मैं पूछ रहा हर चहरे से
चिंता कैसी किसका जीवन ?
एक मौन मिला बस उत्तर में
और कुछ भी नहीं कभी कुछ भी नहीं

इक उम्र पड़ी अभी जीने को
इक उम्र देख कर आया हूँ
बड़ी जोर-जोर से बातें की
और दे मैं सका अभी कुछ भी नहीं

कोलाहल चीत्कार शहर की
door धकेले है मुझको
भाग रहा मैं अपनी छाया से,
ढूंढ रहा मैं कुछ भी नहीं, हाँ कुछ भी नहीं

5 comments:

Anonymous said...

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Pauline

prerna argal said...

कोलाहल चीत्कार शहर की
door धकेले है मुझको
भाग रहा मैं अपनी छाया से,
ढूंढ रहा मैं कुछ भी नहीं, हाँ कुछ भी नहीं bahut
sunder prastuti.badhaai.



please visit my blog.thanks

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

BHAVPOORN SUNDAR RACHNA

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...

Abhishek said...

Kuch bhi nahi hai, aur yahi to sabkuch hai...
Bravo, as always!

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