Friday, April 29, 2011

मेरी कविताओं


कभी समय के साथ जो चलकर

भूल गया मैं मुस्काना

मेरी कविताओं फिर तुम भी

धू-धू कर के जल जाना



बहुत देर से चलता आया

बिन सिसकी बिन आहों के

आज अगर मैं फूट के रो दूं

तुम बिलकुल ना घबराना



मैं तो इक चन्दन की लकड़ी

यज्ञ-हवन में जलता हूँ

तुम हर मंत्र के अंतिम स्वाहा पर

बन आहूति जल जाना



द्वेष ना करना पढने वालों से

जो तुम्हे मामूली कहते हैं

बन जीवन का अंतर्नाद तुम

रोम रोम में बस जाना



भूत की खिड़की बंद कर चूका

मैं वर्त्तमान में लिखता हूँ

तुम भविष्य की निधि हो मेरी

आगे चल कर बढ़ जाना



ह्रदय कोशिकाओं में मेरी

शब्द घुल रहें बरसों से

लहू लाल से श्वेत हो चूका

तुमको अब क्या समझाना



अर्थ ढूढने जो मैं निकलूँ

मार्ग सभी थम जाते हैं

दूर दूर तक घास-फूंस है

मृग-तृष्णाओं पे पीछे क्या जाना



नदी के कल कल निर्मल जल सी

बहती रहो रुक जाना ना

झूठ सच यहीं पे रख दो

सागर में जाके मिल जाना

11 comments:

peace said...
This comment has been removed by the author.
pushkar jha said...

kya likhe ho bhai....i ll take u as an inspiration whenever i sit down to write anyhting....just fabulous with the flow of words..

Neeraj said...

waah..maja aa gaya

chakresh singh said...

Mam thanx a lot..par mujhe kuch samajh nahi aaya :)

वाणी गीत said...

आहूति
रो दूं
अंतर्नाद
इन शब्दों को चेक कर लें ...मैं भी बहुत गलतियाँ करती हूँ :)

अच्छी प्रस्तुति !

chakresh singh said...

thanx Veena ji..
mera blog spelling mistakes se bhara pada hai....spellings meri weakness rahi hai bachpan se ...main fursat mein hoonga to blog pe corrections jaroor karoonga.
dhanyavaad.

vandana gupta said...

वाह्……………अलग अन्दाज़ की सुन्दर रचना।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

SUNDAR KAVITA

ZEAL said...

Chakresh ji , honeshtly speaking , its a beautiful creation.

Wierdo said...

awsome some bhai...
dil ko joo gayi....

shephali said...

nishabd kar diya

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