Tuesday, June 18, 2013

हमें गाँव जाना होगा

कई वर्षों बाद जीवन की व्यस्तता को दो पल के लिए भूल कर मैं चार दिन के लिए गाँव हो आया। ये चार दिन कई कारणों से चार वर्षों जितने लम्बे और चार पल से भी छोटे लगे। मेरी समझ से ये इस कारन था क्यूँ कि समय एक सामान गति से नहीं गुज़रता घडी की सुइयां मानव मस्तिष्क के भीतर चल रही भावना की लहरों को यदि गिन पातीं तो ये बात स्पष्ट हो जाती। जहां एक ओर  बारिश की पहली बौछारों से तेज़ी से पकते आम और हवा के थपेड़ों से हिलती टहनियां पर गाँव के बच्चों के सटीक निशानों से टूटते फल, घंटों तक चलते हुए भी दो पल का ही लगा। वहीं दूसरी और जिन कन्धों पे बैठ कर गाँव देखा था उस बाबा का लकवे के असर से जर-जर हुआ शरीर और उम्र के साथ खोती यादास्त से भोझ बनता जीवन दो चार वाक्यों के संवाद को वर्षों सा लम्बा बना गया। 

मैं क्या देख कर आया हूँ अब आप को कैसे बतलाऊँ। इतना ज़रूर समझ पाया के देश की समस्याएं यदि गाँव से शुरू होती हैं तो कहीं न कहीं दिल्ली काफी समय  से काफी गहरी नींद में सोया रहा है, जो आज भी मेरा गाँव वहीं खड़ा है जहां कई वर्षों पहले था। स्कूल की इमारते हैं तो मास्टर नहीं, फसलें हैं तो उन्हें सींचने को पानी नहीं, बिज़ली कटौती इतनी के मोबाइल फ़ोन चार्ज नहीं किया जा सकता बाकी के काम का अंदाजा आप लगालें, सड़कें जरूर बनी हैं पर देखें के सड़कों से कितना कुछ आ जा सकता है इन गावोंमें। 

गाँव के भोले लोग अपनी समस्याओं को खुद समझ नहीं पाते। मैंने कोशिश की कुछ परिवारों से बात कर के उनकी समझ को समझने की समझ में ये आया के वे बहुत कुछ समझना नहीं चाहते। दो बच्चे अभी कन्धों पे बैठ खेल रहे हैं तो तीसरा आने वाला है।  उसे कहाँ बिठायेंगे ये प्रश्न बेतुका लगा उन्हें। 

खैर कम शब्दों में इतना कह सकता हूँ के भारत का विकास अखबार पढ़ कर या  टीवी देख कर नहीं समझा जा सकता है, हमें गाँव जाना होगा ।    

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...