Thursday, December 31, 2009

मधुशाला

इक अंतिम गीत मैं लिख लूं, फिर चलता हूँ मैं साकी
मैं तेरी है प्यारी मुझको, पर अब भी मुझमें है कुछ मैं बाकी

अपनी मैं मैं जरा पिला दूं, खाली सबके हैं प्याले
कुछ को पीने की ख्वाहिश है, पर होटों पे हैं ताले
ये कैसे हैं पीने वाले, जरा देख तो तू साकी
मद-डगमग न कोई पग है, हैं सबके होश बाकी

जरा मैं लिख लूं के अब भी दम है , माना के अब स्याही कम है
जोड़ रहा दो शब्द मैं ताकि
इक के भी रह ना जायें होश बाकी .......

आया था तू द्वार मेरे, बैठा जो तू दो पल साकी
कैसे करूँ अपमान मैं तेरा, चलता हूँ मैं तू चल साकी

छोड़ चलूँ मैं प्याला अपना, यहीं छोड़ता हूँ हाला
दूर देस है जाना हमको, दूर है तेरी मधुशाला
बंद करूँ क्यूँ अब कमरे को, है यहाँ कहाँ अब कुछ बाकी
मैं तेरी खींचे है मुझको, अब ले चल भी तू एय साकी .....

....................

Wednesday, December 30, 2009

आकाश की अवहेलना

दिसम्बर की सर्द दुपहरी में
धुप में कुरसी लगाये
आकाश चूमती इक पतंग पे टक-टकी बांधे बैठा हूँ

दूर से आते चिड़ियों की चेह्कन
गाड़ियों की आवाजें
कुछ दूर बैठी महिलाओं की बातें
और फिर से पतंग की सर सर

धुप का बायीं गाल को सहलाना
और आँखों का स्वयं ही बंद हो जाना
खो जाना कुछ खयालों में
पतंग सा लहराना

उस तडपती पतंग के पीछे किसी
अद्रिशय बालक और डोर का सवार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
कागज़ पर पड़ी इस कविता के पीछे
इक भावुक मन का स्वार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
अब पतंग के जीवन पर और क्या लिखों
उसका उड़ना निरर्थक सा लगता है ...
स्वार्थ और उससे जुड़े इन रंगों का आकाश चूमना
आकाश की अवहेलना नही तो और क्या है ?...

Sunday, December 27, 2009

क्यूँ इक भी कविता अब तक दिल को न लुभा पाई है ?

क्यूँ कवियों के इस जमघट पे इक खामोशइ सी छायी है
क्यूँ इक भी कविता अब तक दिल को न लुभा पाई है ?

कहाँ गयी वो लेखन शैली
कहाँ है वो रास विहार
कहाँ गए वो कवी महाजन
कहाँ गया वो श्रींगार


मेरी मानो चुप्पी तोड़ो
आओ बैठो शब्दों को जोड़ो
इक टूटी सी कविता बनाते हैं
मिल कर्र इक स्वर में उसे
फिर प्रेम से गाते हैं

तेरी कविता मेरी कविता
तुझसे अच्छी मेरी कविता

कविता तो बस आखर सरिता
किसकी कविता किसकी सरिता ?

आओ इस फुलवारी में
शब्ब्दों की इस क्यारी में
नए फूलों को उगते हैं
आओ मिल कर
गीत प्रेम का गाते हैं

Thursday, December 24, 2009

याद

याद है क्या तुम्हे वो उस दिन धुप में नंगे पांव मकबरे तक जाना
वो लोगों के फेंके सिक्कों को उठा हर्षाना

दौड़ना उस बूड़े बाबा का लाठी ले कर
वो खेतों खेतों भागते नए गावं पहुच जाना
वो गन्ने तोडना खेतों से
हाथों को फिर सहलाना
वो नेहर किनारे बैठ ज़ोरों से चिल्लाना

गिनना फिर उन सिक्कों का
सिक्कों में जीवन पाना
याद है क्या तुम्हे वो उस दिन धुप में मकबरे तक जाना ???

Saturday, December 19, 2009

हंसी के मुखोटे

चुभ जाना इक हार का दिल तक
आँखों से आंसूं आना
बंद करके दरवाजों को
कमरे में अकेले सो जाना

वो नींद में इक स्वप्ना का आना
झल्लाकर उठ जाना
खिड़की से बाहर झाँक
स्वप्न को जीवित पाना

वो आईने में शकल निहारना
बाल ठीक कर बाहर जाना
वो पूछ देना दोस्तों का
"क्यूँ खुश नही , क्यूँ घबराना ?"

वो हंस कर कहना -
"सो कर आया हूँ ...
सो लगता है रो कर आया हूँ ...
आँख नम है ...जुकाम है शायद
अभी अभी तो मुह धो कर्र आया हूँ "

मन में इक वेदना छिपाए
हृदय में n संन्कल्प दबाये
घूम रहा हूँ गली मोहल्ले
हंसी के मुकोते लगाये ....

Saturday, October 31, 2009

shayari

तेरी ख़ामोशी में भी शिकायत सुने देती है
के यार तेरे आँखों के नूर ने शायर बना दिया

तेरे तसव्वुर में अलफ़ाज़ खो गए ...
महफिल में तेरी तारीफ़ न हो सकी इसमें हमने क्या किया?

Friday, October 30, 2009

farewell poem

ये कहकहे कहेंगे कल की खामोशियों में
की यार कभी वो दिन भी थें

ये महफिलें कहेंगी कल की तनहाइयों में
की यार कभी हम तनहा न थें

ये मिकडे ज्झूम कर्र याद दिलाते रहेंगे कल की मदहोशियों में
की यार कभी हम भी होशमंद थें

Saturday, October 24, 2009

माँ

'झा' कर के जब मैं चिप जाता
आँगन में तंगी साडी के पीछे
मुघे दूंद्ती आ जाती वो अँखियाँ मीचे

साडी की झिलमिल ओत से मैं हंस देता
दौड़ कर माँ को नन्हीबाहों में कस लेता
रजा बेटा कह मुघे द्लारती
मुझे गुदगुदा खुद ही हर्षाती

मुझे उठा फिर गोंडी में स्वप्न लोक में लके जाती
स्वप्न लोक में परियां होतिएँ परियों में मैं चिप घबराता
झाल्लाकर्र ओठ जाता
झा करता माँ को बगल में ही पाता

माँ मेरी सौ परियों से सुन्दर
परम पावन उस्सका आँगन
मेरी तीरथ मेरी माता
मेरी मंदिर उसका प्रांगन

मैया मोसे खोई मुरलिया

मैया मोसे खोई मुरलिया
ला दे मोहे नयी मुरलिया
मैया मोसे खोई मुरलिया

जा बैठा जबब यमुना तीरे
चल लागी पवन धीरे धीरे
याद आ गयी धुन वो पुरानी
नांच उठी थी जिसपे राधिका रानी
टूटी थी मैया उस दिन उस्सकी पजनिया
मेह्कन लागी थी जब सुर फुलवरिया
फिसल हाथ से गिरी यमुना जी में मोरी मुरलिया

....
गिरी तोसे जो तोरी मुरलिया
देख तो चल के मोरे लल्ला
यमुना जी ही बनी मुरलिया ...

Sunday, October 18, 2009

where is God?

-
Growing up in a traditional Indian middle class family, I got to know the same stuff as most of you know and the things that have now so deeply rooted in our thinking that now we don’t even see a scope of questioning them. No, I am not talking about superstition or misunderstanding something, I am talking about our inability to see the seeds when they were being sown (by our parents and society) and the black ribbon around our eyes that disallows us to see the tree that’s standing tall in front of us today.
I remember how my parents would talk to some of our guests cordially and as soon as the guests would leave, they would look so relieved. Yes, it’s a torture to laugh at jokes you don’t like. It’s a torture to throw smiling faces at your guests whose presence disturbs you. It’s a torture to know that the studies of your kids are being affected by the frequent guests, after all, the competition outside is tough. Were they like this when they were kids? Was there no time in their lives when they really used to laugh with their hearts? Were they always to speculative and afraid of the outside world? I don’t think so. I feel something changed them with time. In fact time changed them. Time changed their lives. People rightly say, “Life keeps changes with time”. Well, they changed their lives to make sure ours’ become good. What I question today is that, “what exactly, do they mean by GOOD LIFE?” Now, you must be wondering, why I have now moved away from the topic, why this digression? Well, my friend, believe me the whole story revolves around this question.
Let’s just ask ourselves today and try to get the answer of this very simple question: “ Are we a part of any one single relationship that is not standing on the word “requirement” ?“. Where there’s a need, there’s a relationship. This is the point where relationship comes in, this the point where it takes a leave. Relationship! Big word, isn’t it?
When we were young we were blind to these “seemingly" simple facts of today. We used to observe the smallest beauty of nature closely. I remember how I would observe the ants moving here and there for hours. I used to feel bad about a dead insect and feel the pain of its siblings. But then I grew up. Time changed my life. Now, I know the reality. An insect does not deserve so much observation now. And now we use the word insect as a synonym for small, less important. But dear friend, you were the kid related to this creature few years back-unconditionally. You saw God without any extra effort in the smallest beauties of nature. For you the rainbow was the glimpse of the almighty, the moving ant was the testimony of his omnipresence. You didn’t need a spiritual guru or a holy book to make you believe that there was some God somewhere. You were so pure hearted that you could see everything so clearly then. Oh yes, “pure heart” is the point where the whole discussion is pointing to. Look, your mind and heart have now gradually lost the purity. We lost it together. But if it’s lost then where did it go? Yes, the purity of soul, where is it? The answer lies in another question-“ Is it worth searching for it? Is there a need of purity here?”
Well, the whole idea about writing this piece of poor literature was to just find people who think like me or have the answers to the questions and are standing on the other side of this river of confusion. I don’t know, if I was very articulate or not in keeping my point in front of you, but I know one thing for sure, and that is, there’s no other side of this river.

Friday, September 11, 2009

mera bachpan

nange paon, chilchilati doop mein
khilkhilaata, daudta, girta, utha
rota hansta mera bachpan
piita ke kandhon pe baitha, chanda oor haath uthata mera bhachpan
maa ke aanchal mein chipta mera bachpan
paramaatma se baaatein karrta mera bachpan
haaye hai dhikaar tugpe javani
badal gayi kchad bhar mein kaise ye kahani

Tuesday, September 8, 2009

from a back bencher....

LOST.
Thou art we, oh Lord don’t know
Why you left us all alone?
We are just traversing the fields of human thoughts
And do nothing but moan.

Sitting ideal at the back benches
With the class going on
My mind is fixed on you
all passions and reasoning gone.

I can’t live alone any more
And bear the pain under my chest
My lord provide Thou laps
Where upon can I keep my head and rest

I know not how to how to feel
To be in final year.
The society is waiting as college comes to an end
Again the same story fills my eyes with tears.

22 gone in the search, 22 more, let say.
Before you open the gates of your Kingdom
Where can I run, fall, stand, jump and play.

Sunday, September 6, 2009

Paheli

फिर पहेली बन खड़े हैं रिक्त मस्तिष्कों के झुण्ड
नयनों में अंगार लेकर ह्रदय में अग्नि कुंद

चल पड़ी है भीड़ पीछे चल पड़े सभी
लौट के आयेगे वहीँ चले थें जहाँ से इक दिन कभी ..

क्या है करना ? कौन जाने ?
क्यूँ है करना ? कौन जाने ?
स्वार्थ के इस दो राहे पर ज्ञान है क्यूँ मौन जाने ?

स्तभ्ध कुंठित मौन मुझको बस है रहना
भावनाएं हैं, है इनका काम बहना ..

चल पड़ी फिर कागज पे कलम
कह कर कुछ, फिर चुपसो गए हम.

Wednesday, April 22, 2009

Door khado yunhee

हर शाम अकेलापन , हर रात तन्हाई ...
हर सांस भारे है , हर सांस में गहराई ..

पहलू में हलचल है , और दिल में सन्नाटा ...
डरता हूँ उजालों से , कुछ समझ नही आता
दूर खड़ा यूँही , सोच रहा हूँ मैं
अपने बस्ती में , कोई कुछ नही पाता

सागर के लहरें भी सवाल उठाती हैं
जब रेत ही पाना है, तो किनारों तक क्यूँ आती हैं ?
दूर खड़ा यूंही, सोच रहा हूँ मैं
अपने बस्ती से क्या कुछ ले आती हैं ......

सुनसान अंधेरों में, चल रहा हूँ मैं
सवालों के लपटों में , जल रहा हूँ मैं
दूर खड़ा यून्हे ,देख रहा हूँ मैं
अपनी हे बस्ती में ढल रहा हूँ मैं .....

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...