Saturday, October 24, 2009

माँ

'झा' कर के जब मैं चिप जाता
आँगन में तंगी साडी के पीछे
मुघे दूंद्ती आ जाती वो अँखियाँ मीचे

साडी की झिलमिल ओत से मैं हंस देता
दौड़ कर माँ को नन्हीबाहों में कस लेता
रजा बेटा कह मुघे द्लारती
मुझे गुदगुदा खुद ही हर्षाती

मुझे उठा फिर गोंडी में स्वप्न लोक में लके जाती
स्वप्न लोक में परियां होतिएँ परियों में मैं चिप घबराता
झाल्लाकर्र ओठ जाता
झा करता माँ को बगल में ही पाता

माँ मेरी सौ परियों से सुन्दर
परम पावन उस्सका आँगन
मेरी तीरथ मेरी माता
मेरी मंदिर उसका प्रांगन

No comments:

मेरे सच्चे शेर

 बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow)