Wednesday, June 2, 2010

काल से द्वूत खेलता मैं

स्वप्न में
काल से द्वूत खेलता मैं,
जाने क्या क्या दाव पर लगा चुका हूँ |
पासों के इस खेल में
काल की पकड़ इतनी अच्छी क्यूँ है ?
यह भी मेरी समझ से बाहर ही है अबतक |
काल बहुत धनि तो नहीं पर
हार का डर उसके माथे पर आता ही नहीं |
उसका मेरे सर्वस्व लगा देने पर
मेरी तरफ देख कर हँसना
मुझे बिलकुल पसंद नहीं आता |
पर मेरे स्वप्न में मेरी ही हार तो हो नहीं सकती,
ये सोच कर एक और दाव लगा बैठा मैं |
पासे हाथों में लिए बैठा काल,
हँसता ही जाता
हँसता ही जाता

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

अच्छी लगी आपकी कवितायें - सुंदर, सटीक और सधी हुई।

nilesh mathur said...

बहुत सुन्दर! !

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