कुछ फासले जरूर हैं मेरे तुम्हारे दरमियाँ
उन फासलों के बावजूद देखो अभी जिन्दा हूँ मैं
माना तुम्हारी नज़र में मैंने ही कोशिश छोड़ दी
उगता हुआ सूरज था कभी समझो के ढल चला हूँ मैं
मुझको नहीं है ये पता क्यूँ इतना चाहा था तुम्हे
तुमने कहा "खुल के बरस" मुझको लगा खुदा हूँ मैं
इस मोड़ पर अब किस तरह अलविदा कह दूं तुम्हे
ये पहला प्यार था मेरा इस राह पर नया हूँ मैं
किसी बात पर गर नाराज़ हो कदमों में मुझको पाओगी
जब जब भी नम हुई हो तुम तब तब कहीं जला हूँ मैं
सोचो तो कुछ न माँगा था, न माँगा है तुमसे आज तक
गर दे सको तो इतना ही के समझो तो कभी के क्या हूँ मैं
कोई शाम हो तो कह सकूं के याद तुम न आये थे
जाने कबसे तुम्हारी याद में तनहा अकेला चला हूँ मैं
मैं जानता हूँ अब कोई उम्मीद रखना है गलत
ये बात कुछ नयी नहीं गर्दिश में ही पला हूँ मैं
इक दर्द था दबा दबा तुमसे कभी कहा नहीं
रोहित की उस ग़ज़ल से कहीं थोड़ा सा तो जला हूँ मैं
जाने अनजाने कब कहाँ तुमको इतना अपना लिया
तुम नहीं हो अब ये सोच कर पहले से डरा डरा हूँ मैं
जुल्फों को नागन लिख दिया,आखों को जाम कह दिया
शायद तुम्हारे ही लिए शायर बना फिरा हूँ मैं
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
मेरे सच्चे शेर
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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