Sunday, September 1, 2013

कुछ फासले जरूर हैं मेरे तुम्हारे दरमियाँ

कुछ फासले जरूर हैं मेरे तुम्हारे दरमियाँ
उन फासलों के बावजूद देखो अभी जिन्दा हूँ मैं

माना तुम्हारी नज़र में मैंने ही कोशिश छोड़ दी
उगता हुआ सूरज था कभी समझो के ढल चला हूँ मैं

मुझको नहीं है ये पता क्यूँ इतना चाहा  था तुम्हे
तुमने कहा "खुल के बरस" मुझको लगा खुदा हूँ मैं

इस मोड़ पर अब किस तरह अलविदा कह दूं तुम्हे
ये पहला प्यार था मेरा इस राह पर नया हूँ मैं

किसी बात पर गर नाराज़ हो कदमों में मुझको पाओगी
जब जब भी नम हुई हो तुम तब तब कहीं जला हूँ मैं

सोचो तो कुछ न माँगा था, न माँगा है तुमसे आज तक
गर दे सको तो इतना ही के समझो तो कभी के क्या हूँ मैं

कोई शाम हो तो कह सकूं के याद तुम न आये थे
जाने कबसे तुम्हारी याद में तनहा अकेला चला हूँ मैं

मैं जानता हूँ अब कोई उम्मीद रखना है गलत
ये बात कुछ नयी नहीं गर्दिश में ही पला हूँ मैं

इक दर्द था दबा दबा तुमसे कभी कहा नहीं
रोहित की उस ग़ज़ल से कहीं थोड़ा सा तो जला हूँ मैं

जाने अनजाने कब कहाँ तुमको इतना अपना लिया
तुम नहीं हो अब ये सोच कर पहले से डरा डरा हूँ मैं

जुल्फों को नागन लिख दिया,आखों को जाम कह दिया
शायद तुम्हारे ही लिए शायर बना फिरा  हूँ मैं





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