Wednesday, January 15, 2014

अब चला नहीं जाता

एक सब कुछ भुला देनी वाली सांझ मेरे घर की दहलीज पर आ बैठी...

मैं छज्जे के नीचे बैठा, पाँव पसारे ढलती सांझ के सिमटते फैलाव और आसमान के धीरे धीरे सिंदूरी से स्याह होते महोत्सव में
अपने भीतर के एक एक स्वप्न, एक एक संगी-साथी, एक एक शब्द को धुँवा होते महसूस करता रहा

सोचता रहा कि दिन भर के समारोह के महान समापन पर कैसे साथ की सभी कुर्सियां खाली हो जाती हैं
और साथ के सभी श्रोता कहाँ चले जाते हैं

भूल जाना कितना आसान होता है
बस एक साँझ ढलते सूरज संग डूबती साँसों को गिनना भर तो होता है

स्वयं को अपने अस्तित्व की छणभंगुरता पर कितना भरोसा होता है कभी कभी

पर अब अकेले चला नहीं जाता


-ckh

No comments:

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...