Tuesday, March 4, 2014

मैं फिर मणिकर्णिका हो आया

मैं फिर मणिकर्णिका हो आया
आँखों से समंदर रो आया
एक साथ जल रही लाशों में
अपना अज्ञान मैं धो आया
मैं फिर मणिकर्णिका हो आया

जलते शरीर पे मौन हूँ मैं
ये सोच रहा के कौन हूँ मैं

है किसकी रचना ये कविता
किस ओर चली जीवन-सरिता
चहुँ ओर उधर विस्तार है क्या
कोई तो कहे यह संसार है क्या

भागवद में केशव खूब कही
क्षत्रीय को दे दी आस नयी
के अर्जुन से कोई भूल न हो
वर्षों की तपस्या धूल न हो

वो पृथा पुत्र को पार्थ कहा
रिश्ते नातों को स्वार्थ कहा
क्या भीष्म-द्रोण क्या अभिमन्यु
जलना ही न हो तो यज्ञ हो क्यूँ
है यज्ञ कुंड ये जीवन
हैं टूट रहे सारे बंधन
क्या क्या न कहा तुमने केशव
गिरना ही तो है बन कर के शव
आँखों में लेकर के नीर यहाँ
आता ही नहीं है वीर यहाँ
वो कुरुक्षेत्र ही क्या तुम बोलो
जिसमे कर्ण की ललकार न हो
मृत शैया पर भीष्मा न हो
गांडीव की ठनकार न हो
उठते हैं यहाँ गिरने वाले
गिरते हैं यहाँ उठने वाले
शकुनी के पासों को देखा
पांचाली के केशों को देखा

देखि जीवन की छाँव धूप
संजय की आखों भागवद स्वरुप
अब देख रहा हूँ उगता सूरज
बढ़ते हुए रथों पर ध्वज
अब हाथ कांपते हैं मेरे
हाय! ये चिंताओं के घेरे
केशव इस बार चले आओ
उस पार मुझे अब ले जाओ
ऐसा न हो के रिक्त हुआ
अज्ञान में मैं लिप्त हुआ
अंधड़ में आँखे मलते मलते
आखें खो दूँ जलते जलते
जलती लाशों पे कविता पिरो आया
हंसने का काऱण खो आया
मैं फिर मणिकर्णिका हो आया

-ckh

http://chakreshblog.blogspot.in/2011/02/antim-satya.html

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