भारत- एक अंतहीन, अपरिभाष्य, अनिर्वचनीय सत्य। और क्या लिखूँ इस साधारण से दिखने वाले किसी देश के नाम को? जनमते और जन्म के बाद, क्षण प्रतिक्षण बीतते इस जीवन पर, जो की उस नलके की तरह है जिससे कि पानी बूँद-बूँद रिस रहा है,"भारत" की इतनी गहरी छाप होगी ये कल्पना के पार लगता है और कदाचित इसी लिए यथार्थ में फलीभूत हो सका है (reality is stranger than fiction).
"जनमते" मैंने लिख भर दिया है, यद्यपि सत्य तो यह है के जन्म से पहले ही भारत अपनी छाप हमपर लगा देता है। यह भी नहीं के आज का भारत। वो हर भारत जो आज से पहले कभी था या नहीं था और जो भी था जिससे भारत का निर्माण होता जान पड़ता है, वो सब हमारे अस्तित्व पर अपनी छाप लगा देता है। ये यूँ देखा जा सकता है कि जो हमारा नाम-करण होता है वो अक्सर संस्कृत के उन शब्दों से होता है जो अब आम बोल-चाल की भाषा पे प्रचलित भी नहीं हैं। या यूँ कि गुण-दोष कुंडलियों में लिखा जाता है, वो उस शास्त्र पर आधारित होता है जो कि विज्ञान के किसी पाठ्यक्रम में विद्यालयो में सम्मिलित तक नहीं किया जाता। देखा जाए तो हिन्दू के दृष्टिकोण से अभी तक की बात कह रहा हूँ और कोई यह भी आरोप लगा सकता है के भारत, हिन्दू का पर्यायवाची नहीं हो सकता। जितना व्यापक हिन्दू दर्शन का आँगन मुझे दिखता है, मैं पूछ सकता हूँ के, "क्यों नहीं?"
वैसे मूलतः जिस विचार को अभिव्यक्त करने के लिए आज कलम उठाई है वह इस विवाद के अखाड़े से बाहर निकल कर भी किया जा सकता है। विचार यही है के – हम, भारतीय होने के नाते, और देशों के नागरिकों की अपेक्षा अपने अस्तित्व को लेकर ज्यादा जटिल प्रश्नों से घिर जाते हैं। एक तो इतना विशालकाय देश, उस पर से इतनी विविधतायें और विषमताएं, फिर इसी सब में एक असह्य प्रतिस्पर्धा, जो कभी कहीं विश्राम नहीं करने देती। जीवन को थोड़ा रुक कर देखने और समझने भी नहीं देती। वैसे हर बात, हर एक व्यक्ति के लिए एक सी ही हो यह भी नहीं कहा जा सकता। हरिवंशराय बच्चन यदि ये लिखते हैं कि, "जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया कहा माना उसमें क्या बुरा भला" तो क्या इस वेदना और असमर्थता में आज के एक आम भारतीय का स्वर नहीं सुनाई पड़ता? यह भी सोचने की बात है।
वैसे तो नदी में पड़ी मछली, तैरने को विवष होती है और यदि बहुत समय तक न तैरे तो मृत भी घोषित की जा सकती है पर मानव का मछली जैसी पुरातन और निम्न प्रजाति से तुलना करना क्या ठीक होगा? क्या यह सच नहीं के नारायण के दस अवतारों में मीन का अवतार बहुत पहले हुआ था और कृष्ण जब भागवद गीता का ज्ञान देते हुए अर्जुन से यह कह रहे थे कि कर्म के बिना तो जीवन संभव ही नहीं है, तब वह नारायण के आठवें अवतार में थें? मछली की विवषता, मानव की विवषता से कितनी भिन्न है? कर्म के बिना इस भव-सागर में रहना संभव ही नहीं, इसेपार करना तो दूर का प्रश्न है। इसका भारत में जनमने से कोई सापेक्ष नाता तो नहीं जान पड़ता। फिर भी अकर्म में जीने की बात कर भी कौन रहा है? बात तो जीवन में आने से पहले और जीवन में रहते हुए, एक भारतीय होने के नाते अत्यधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा में जीते हुए भी ना जी पाने की छटपटाहट से शुरू हुई थी। "स्वाधीन भारतीय" कदाचित कोई दुर्लभ प्रजाति का नाम होगा, मैंने पराधीन जन-मानस ही देखे हैं। रिश्तों नातों का इतना कड़ा गला घोंट देने वाला फंदा, उस विकसित संसार में तो नहीं दीखता जिसके पीछे हम विकास के नाम पर भागे जा रहे हैं।
यदि हिंदुत्ववाद को भी समझा है आप ने, तो यह आप जानते हैं कि व्यक्तिवाद के लिए कोई विशेष स्थान इस महान जीवन शैली में नहीं है। रामायण में जब राम चन्द्र जी ने पित्र आज्ञा (या पिताकी विवशता) के भीतर रहते हुए चौदह वर्षों का वनवास वंश-लाज के नाम पर स्वीकार कर लिया तब जवाली नाम के एक संत ने राम को डांटते हुए चेताया था कि यह किसी गृहस्त के लिए सही आचरण नहीं है कि वह अपनी नव-विवाहित स्त्री को अपने साथ लेकर वन को चल दे जबकी वह किसी राज्य की महारानी बन सकती है। रामायण में जवाली को कोई विशेष आदर नहीं दिया गया है। पर क्या आज का भारतीय नव युवक जो हिंदुत्व का झंडा लहराए फिरता है, अपने जीवन में राम सा आचरण लाने को इक्षुक भी है? क्या व्यक्तिवाद का कोई ऐसा युग भारतमें आएगा, जिसमें व्यक्ति का व्यक्ति सा विकास हो सकेगा? "वसुधैव कुटुम्भकम" तो अपनी जगह ठीक है, पर क्या इस कुटुम्भ में वो कमरे भी होंगे, जिनकी कुण्डी हम अपनी स्वेच्छा से लगा सकेंगे और एकांत में आत्म-साक्षात्कार भी कर सकेंगे? ये कैसा कुटुम्भ है, जहाँ कभी-कभी सांस भी नहीं आती?
सोचता हूँ अंत में कुछ अच्छा लिख कर बात को बढ़ने से पहले ही विराम दे दूँ। फिर सोचता हूँ बात को विराम तो दे सकता हूँ पर गर्दन के दर्द का क्या करूँगा।
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