जमा मस्जिद के सामने देखा एक
बूड़े बाबा को ठेले पर बेकरी बिस्किट बनाते हुए
कैसे चुप चाप भीड़ से अनजान बने
उम्र के सभी पड़ाव और उनतक साथ चले अनुभवों को
अपने चहरे की सिलवटों में समेटे
मैदे सूजी घी और चीने से बने चूरे को
अंगीठी में तपा मीठे स्वाद से भरे बिस्किट बनाते हैं ...
रोज़ मर्रा की वही खबरें,
दो - चार आने पर आग उबलते चाँदनी chauk के बाज़ार
और नव जवाने के वही बिगड़े तेवर, आग उबलते सवाल
कैसे इन सब में रह कर
इन सब से दूर यहाँ खुदा के दर पर ही
पा लिए है इन बूड़े बाबा ने
ज़िन्दगी जीने का एक हसीं मकसद
उल्गलिया अंगीठी की राख से भले ही काली हो जाती हैं
मगर हर एक बिस्किट सोने के सिक्कों सा चमकदार बन निकलता है
समय के साथ हिन्दू मुसल्ल्मानों में दरार दे गए सियासत वाले
और उन्छुवा नहीं हूँ मैं shaayad
शायद इस लिए एक बार मस्जिद तक जाती ऊंची सीढ़ियों
से दर gaya tha मैं
पर जाने इन बाबा की आँखों में तैरते जीवन के सभी मंजरों में कहाँ
खुद को देख लिया मैंने...
प्यार से रचे एक एक बिस्किट कह गए मुझसे
खुदा के सभी तलिस्माई किस्से
और मिटा गए ह्रदय की सतेह से सभी निरर्थक रेखाएं
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
मेरे सच्चे शेर
बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow) दरख़्तों को शिकायत है के तूफ़ाँ ...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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1 comment:
पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है
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