क्या नहीं जानता हद्द-ऐ-तन्हाई को
एक रिश्ता मगर फिर भी भारी लगे
कुछ कमी सी रही दिल के बाज़ार में
हर गली - हर शहर कारोबारी लगे
उतारता रह गया जन्म के हर करम
सोचता रह गया मैं यहाँ क्यूँ भला
कौन मुझमें समाया है mere siwa
कौन इतना हैराँ - परेशान है
एक पल को अगर ये भी मैं मान लूं
किसी विधाता का पुत्र हर इंसान है
तोभी कैसे ये गुत्थी khule tum kaho
क्यूँ ये hasti 'असल' से ही अनजान है
किस बड़े काम के ख़त्म होने तलक
यूँही चलता रहेगा ये तनहा सफ़र
'चक्रेश' संजीदगी की तरफ बढ़ रहा
एक प्यारी हंसी भी क्यूँ भारी लगे
2 comments:
Nice lines
्सुन्दर प्रस्तुति।
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