Wednesday, October 24, 2012

सहस्त्र अनुभूतियाँ


मैं धीरे धीरे पंख फैलाने लगा
मैं आज़ाद हूँ 
मैं आज़ाद हूँ 
अब फिर से कई बरसों के बाद 

न चाह है के कुछ कहूं - कुछ सोचूँ 
न सवाल हैं, न दुःख,  न दर्द 
न रही चाह दूर टहलते जाने की
दूर अपने सच से कहीं दूर निकल जाने की
न चाह रही किसी और से सहमति पाने की
सामंजस्य बनाने की

मैं आज़ाद हूँ 
अब फिर से कई बरसों के बाद

शांत हूँ, मौन हूँ, खुश हूँ 
मैं - मैं में पूरा हूँ 
अब मैं अधूरा नहीं 

मुझसे जानना चाहोगे के जिंदगी क्या है ?
तुम यहाँ क्यूँ और तुम क्या हो ? 

मैं जानता हूँ तुम नहीं मानोगे 
पर मैं बतलाता हूँ 
तुम मैं हो 
मैं तुम हूँ 
यहाँ कुछ भी दो नहीं 
केवल एक है 

एक शून्य, एक व्योम, एक दूर तक फैला विस्तृत आकाश

नहीं मानते हो न ?
मैं जानता हूँ तुम नहीं मानोगे 

तुम लड़ोगे हर तर्क-वितर्क से 
बुद्धि तुम्हे सोचने नहीं देगी 
तुम नहीं मानोगे


मैं आज़ाद हूँ 
मैं देखता हूँ 
एक बाज़ार - दुकानदारों का, खरीदारों  को और भिखारियों का 
राजाओं का, रंकों का, सेनापतियों और संतरियों का 
खबरों का, चर्चाओं का, सोच का विचार का 
एक जंग - अहम् की, एहंकार की, द्वेष की, अपनी - पराई
एक निरंतर गोल गोल घूमता पहिया 
कोल्हू का बैल, अपनी दुम को पकड़ता एक कुत्ता 
मैं देखता हूँ 
एक दोस्त, एक दुश्मन, एक दंगा, एक आग, एक चीखता बच्चा 

पर मानोगे मेरी बात
यहाँ दो कुछ भी नहीं 

सब पर्याय है यूँ समझो 
एक ही शब्द के 
एक ही अर्थ है 
एक ही आशय है 

तुम मैं हो
मैं तुम हूँ 
मैं आज़ाद हूँ
मैं देखता हूँ
मैं उलझता नहीं 
इस बाज़ार में 
इस छीटाकशी में 
इक तर्क-वितर्क के घेरों में
इस अहंकार - जनित माया में 

मैं गीता से परे हूँ
मैं केशव वचनों से परे हूँ
अनछुआ हूँ
महाभारत के मैदान में उठती धुल में
श्वेत-वस्त्र में साफ़ सुथरा हूँ
कटते गिरते शरीरों के बीच हँसता हूँ
खुश हूँ

तुम नहीं मानते न 
के तुम मैं हो मैं तुम हूँ

चलो यूँ समझो 
के कुछ भी नहीं 
न डरती न सूरज एंड अम्बर अन व्योम न जीवन न मरण न पत्थर न देवता 
न हंसी न ख़ुशी न दुःख न सुख न रिश्ते न नाते न उम्र न समय 

कुछ न होना कुछ होना है क्या ?

बुद्धि को रोक सकते हो इस शून्य में ? नहीं न ..
तर्क हैं वितर्क है 
सोच है सब कुछ तो है 
तुम हो तुम्हारा नाम है 
तुम्हारी पहचान है 
फिर कुछ कैसे नहीं ?

संभव कहाँ है तुम्हारे लिए ऐसे शून्य में ठहर पाना ?
तुम तो बाध्य हो अपनी प्रकृति से सोचने के लिए, बंधने के लिए एक पहचान में, एक नाम में एक स्वरुप में
तुम आज़ाद कैसे होगे कहो ?

नहीं समझते न 
जब मैं कहता हूँ 
के तुम मैं हो 
और मैं तुम हूँ 

यहाँ कुछ भी दो नहीं 
एक ही अर्थ है 
एक ही आशय है 
एक ही कविता है 
एक ही गीत है 
एक की चित्र है 
एक ही दर्शक है 
एक ही श्रोता है
एक ही चित्रकार है 
एक ही सत्य है 
एक ही असत्य है 
एक की निर्वाण है 
एक ही मोक्ष है 
एक ही आस्तिक है 
एक ही नास्तिक है 
एक ही भगवन है 
एक ही इंसान है
एक ही दैत्य है 
एक ही असुर है 
एक ही पहाड़ है 
एक ही नदी है 
एक ही तालाब है 
एक की कंकर है 
एक ही लहर है 
एक ही सूरज है 
एक ही शाम है 
एक ही शराब है 
एक ही साकी है 
एक ही हिंदी है
एक ही उर्दू है 
एक ही कवी है 
एक ही शायर है 
एक ही मैं हूँ
एक ही तुम हो

तुम मैं हो
मैं तुम हूँ

कहो कितने बड़े हो तुम अब 
अपने शरीर जितने ?
क्या उम्र है तुम्हारी 
दो तिथियों के बीच गणित का खेल ?
कितना जी पाए हो अब तक
कितने जीने की है इक्षा कहो ?

मानते हो मेरी बात ?

समझते हो क्या तुम 
मैं जो कह रहा हूँ?

नहीं न ?

चलो जाने दो...
फिर पढना मुझे 
फिर कभी
किसी और दिन
अभी तुम तुम हो 
तुम मैं नहीं ...

तुम आओगे एक दिन
मैं जानता हूँ
स्वेत वस्त्रों में 
युध भूमि में जय-पराजय को रख कर अपने पीछे
हँसते हुए
तुम्हारे वस्त्रों पर कोई दाग नहीं होगा
तुम आज़ाद होगे
तुम मैं होगे
मैं तुम हूँगा

ये होगा मैं देखता हूँ

इतना ही होना है क्यूंकि

इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं है 
आशय नहीं है 
इस काल चक्र का 

यहाँ सब कुछ एक ही है 
और एक में ही सिमट रहा है ...


कितनी पंक्तियों  की ये कविता कहो ?
खाली पन्ना ही तो है ...

----------------------------
- ये तुम्हारी कविता है 

Monday, October 22, 2012

भागते भागते भागते भागते भागते भागते


जागते जीवन का एक एक पल भागते भागते भागते भागते भागते भागते बीत रहा है
अंतिम घड़ी ये दौड़ तड़पायेगी मैं जानता हूँ

ये सवाल उठाएगी
के क्यूँ भागे

क्यूँ नहीं किसी पहाड़ी पर खड़े होकर
नीचे बहती नदी में कंकड़ फेंकते हुए जिंदगी बिताई

क्यूँ नहीं सागर किनार हर शाम डूबते सूरज
के रंगों से आँखों को जी भर रंग जाने दिया

क्यूँ न शोर से दूर कहीं अकेले निकल सके
इक भागा दौड़ी का हिस्सा तुम क्यूँ बने कहो

मैं जानता हूँ ये दौड़ सवाल उठाएगी
और मैं इतना ही कह सकूंगा के
-
जीवन की आप धापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं जो किया कहा माना उसमे क्या बुरा भला

मृत्यु




टूट गयी जीवन की डोरी 
मेरे प्रिय एक साथी की
मैं प्रतिमा बनकर के देखूं
सीमाएं मानव जाती की

Friday, October 19, 2012

एक लैंप पोस्ट दबी ज़ुबान में



सर्द रात सुनसान सड़क पर
घनघोर अंधेरों की थी जब चादर
एक लैंप पोस्ट दबी ज़ुबान में 
अपना अस्तित्व बताता था 

पूर्वा के ठन्डे थप्पड़ से
जब मुरझाईं कलियाँ कपास की 
खेतों में जब मातम था तब
एक लैंप पोस्ट दबी ज़ुबान में 
अपना कुछ दर्द सुनाता था

गाँव को जाती सूनी सड़कों पर
कुछ छीटे थे लाल खून के 
किसी किसान की मजबूरी पर
एक लैंप पोस्ट दबी ज़ुबान में 
कुछ कह कर के चुप हो जाता था

-ckh

Tuesday, October 16, 2012

मेरी सूरत मेरी तस्वीर में पहले सी क्या होगी

मेरी सूरत मेरी तस्वीर में पहले सी क्या होगी 
दीवारें नम रहीं बरसों तो क्यूँ ना ग़म-ज़दा होगी 

बेहकता है बेहकने दे उदू को कुछ शिकायत है 
जो रोकूँ गर मैं पीने से तो ये भी तो खता होगी 

अभी उस शख्स की यादों को मेरे दिल मुल्तवी कर दे
अगर खूरेज़ हुआ फिर से तो तेरी क्या दावा होगी 

तेरे दर से चला था सोच कर के भूल जाऊंगा
नहीं सोचा था शिकायत भी तुझे से बारहा होगी

चलूँ पीछे मैं राहों पे इसी उम्मीद में "चक्रेश"
कहीं बैठी मेरी किस्मत मुझी से कुछ खफा होगी

-ckh

(not in meter)

Tuesday, October 9, 2012

आइये, बैठिये, कुछ बात करें


आइये, बैठिये, कुछ बात करें| 

अक्सर जीवन में ऐसा भी होता के चलते-चलते हम कुछ ऐसे पडावों पे आ पहुंचाते हैं जहाँ कुछ कहना भी दुश्वार सा हो जाता है| जो सोचते हैं वो कह नहीं पाते, जो कहते हैं वो कुछ ऐसा होता है जिसे सुनकर सुनने वाला बिदक जाता है| ऐसा भी होता है के जी करता है कुछ समय के लिए मौन रख लिया जाए|  ग़ालिब का एक ह्रदय-स्पर्शी शेर है - रही न ताकत-ऐ-गुफ्फ्तार और अगर हो भी, तो किस उम्मीद से कहिये के आरजू क्या है| ताकत-ऐ-गुफ्फ्तार का आशय बात करने की ताकत से है|

अभी कुछ दिंनों पहले की ही बात है अपने एक बहुत पुराने मित्र से मैंने भावुक होकर कहा के, 'जीवन समझ में नहीं आता, हम कुछ क्यूँ करते हैं और न करें तो आखिर क्या करें? क्या यह कैद नहीं है, हम सब बंधे हुए हैं प्रकृति के नियमों से? उतना ही देख सकते हैं जितना कि आँखें देखने दें| उतना ही समझ सकते हैं जीतनी दूर हमारी बुद्धि हमें लेकर जा सके'| मैं अभी  मूल भाव तक पहुँचाने कि कोशिश में था के उसने मुझे टोकते हुए कहा के मैं बहुत सोचता हूँ और इन बातों को कोई मतलब नहीं है| दो पल को ऐसा लगा के 'हमजुबां मिले तो मिले कैसे?' किसके कहो और कैसे कहो| या यह संकेत है के अब मौन रखने का उचित समय आ चूका है|

आज विभिन्य टी.वी. चैनलों पर भांति-भांति के कार्यक्रम आते हैं| मैं अक्सर टी.वी. की आवाज़ बंद करके बस चैनल बदलता रहता हूँ| कहीं गंभीर मनो-भाव के अपनी बातों को ज़ोर देकर रखते समाचारक हैं, तो कहीं रियेलिटी शो के मंच पर थिरकते, गाते, मुस्कुराते और मानो जीवन से बेहद खुश कलाकार, कहीं विदेशी मूल के पर्यटक जंगलों की तसवीरें उतारते तो कहीं तेज़ रफ़्तार गाड़ियां आपस में दौड़ लगाती| कहीं बात-चीत है, कहीं प्रवचन है, कहीं छाती पीटते बाढ़-प्रवाहित, कहीं कॉमेडी शो के ठहाके| जीवन के इस छोटे से सफ़र में क्या नहीं है!
 
क्या आशय होगा इन सब का? जीवन कदाचित कुछ भी नहीं पर है|  बुद्धि के व्यायाम हमें सोचने पर मजबूर कर देते है और उसी बुद्धि का एक सीमा से बहार न जा पाने की शक्ति हमें वापस अपने यथार्थ में खींच लाती है| इसी उहा पोह में कवितायें जन्म लेती हैं| अभिव्यक्त होने की अकुलाहट कुछ लिखवा जाती है| कविताओं को भी संगृहीत कर के जब पढता हूँ तो वही टी.वी चैनलों की भांति एक विविध दृश्य सामने दिखता है| अभिव्यक्ति की अपनी क्षमताएं हैं एक सीमा के बाद मौन ही उत्कृष्ठ लगने लगता है| जो हम सोचें यदि वो कह सकें, जो हम सोचें वो यदि वही हो जो हमें वास्तव में छू रहा हो और इसपर ये भी के सुनाने वाला वही समझे जो हमें कहना हो, तो फिर बातचीत का कोई अर्थ है अन्यथा नहीं| 

इक लेख को यहाँ समाप्त कर दूं या कुछ लिखी ये भी एक प्रश्न उठ रहा है| मुझे लगता है के मैं जो कहना चाह रहा था वो कह चूका हूँ सो और खींच-तान ठीक नहीं होगी, बाकी पाठक पर छोड़ता हूँ|


-ckh

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...