मैं धीरे धीरे पंख फैलाने लगा
मैं आज़ाद हूँ
मैं आज़ाद हूँ
अब फिर से कई बरसों के बाद
न चाह है के कुछ कहूं - कुछ सोचूँ
न सवाल हैं, न दुःख, न दर्द
न रही चाह दूर टहलते जाने की
दूर अपने सच से कहीं दूर निकल जाने की
न चाह रही किसी और से सहमति पाने की
सामंजस्य बनाने की
मैं आज़ाद हूँ
अब फिर से कई बरसों के बाद
शांत हूँ, मौन हूँ, खुश हूँ
मैं - मैं में पूरा हूँ
अब मैं अधूरा नहीं
मुझसे जानना चाहोगे के जिंदगी क्या है ?
तुम यहाँ क्यूँ और तुम क्या हो ?
मैं जानता हूँ तुम नहीं मानोगे
पर मैं बतलाता हूँ
तुम मैं हो
मैं तुम हूँ
यहाँ कुछ भी दो नहीं
केवल एक है
एक शून्य, एक व्योम, एक दूर तक फैला विस्तृत आकाश
नहीं मानते हो न ?
मैं जानता हूँ तुम नहीं मानोगे
तुम लड़ोगे हर तर्क-वितर्क से
बुद्धि तुम्हे सोचने नहीं देगी
तुम नहीं मानोगे
मैं आज़ाद हूँ
मैं देखता हूँ
एक बाज़ार - दुकानदारों का, खरीदारों को और भिखारियों का
राजाओं का, रंकों का, सेनापतियों और संतरियों का
खबरों का, चर्चाओं का, सोच का विचार का
एक जंग - अहम् की, एहंकार की, द्वेष की, अपनी - पराई
एक निरंतर गोल गोल घूमता पहिया
कोल्हू का बैल, अपनी दुम को पकड़ता एक कुत्ता
मैं देखता हूँ
एक दोस्त, एक दुश्मन, एक दंगा, एक आग, एक चीखता बच्चा
पर मानोगे मेरी बात
यहाँ दो कुछ भी नहीं
सब पर्याय है यूँ समझो
एक ही शब्द के
एक ही अर्थ है
एक ही आशय है
तुम मैं हो
मैं तुम हूँ
मैं आज़ाद हूँ
मैं देखता हूँ
मैं उलझता नहीं
इस बाज़ार में
इस छीटाकशी में
इक तर्क-वितर्क के घेरों में
इस अहंकार - जनित माया में
मैं गीता से परे हूँ
मैं केशव वचनों से परे हूँ
अनछुआ हूँ
महाभारत के मैदान में उठती धुल में
श्वेत-वस्त्र में साफ़ सुथरा हूँ
कटते गिरते शरीरों के बीच हँसता हूँ
खुश हूँ
तुम नहीं मानते न
के तुम मैं हो मैं तुम हूँ
चलो यूँ समझो
के कुछ भी नहीं
न डरती न सूरज एंड अम्बर अन व्योम न जीवन न मरण न पत्थर न देवता
न हंसी न ख़ुशी न दुःख न सुख न रिश्ते न नाते न उम्र न समय
कुछ न होना कुछ होना है क्या ?
बुद्धि को रोक सकते हो इस शून्य में ? नहीं न ..
तर्क हैं वितर्क है
सोच है सब कुछ तो है
तुम हो तुम्हारा नाम है
तुम्हारी पहचान है
फिर कुछ कैसे नहीं ?
संभव कहाँ है तुम्हारे लिए ऐसे शून्य में ठहर पाना ?
तुम तो बाध्य हो अपनी प्रकृति से सोचने के लिए, बंधने के लिए एक पहचान में, एक नाम में एक स्वरुप में
तुम आज़ाद कैसे होगे कहो ?
नहीं समझते न
जब मैं कहता हूँ
के तुम मैं हो
और मैं तुम हूँ
यहाँ कुछ भी दो नहीं
एक ही अर्थ है
एक ही आशय है
एक ही कविता है
एक ही गीत है
एक की चित्र है
एक ही दर्शक है
एक ही श्रोता है
एक ही चित्रकार है
एक ही सत्य है
एक ही असत्य है
एक की निर्वाण है
एक ही मोक्ष है
एक ही आस्तिक है
एक ही नास्तिक है
एक ही भगवन है
एक ही इंसान है
एक ही दैत्य है
एक ही असुर है
एक ही पहाड़ है
एक ही नदी है
एक ही तालाब है
एक की कंकर है
एक ही लहर है
एक ही सूरज है
एक ही शाम है
एक ही शराब है
एक ही साकी है
एक ही हिंदी है
एक ही उर्दू है
एक ही कवी है
एक ही शायर है
एक ही मैं हूँ
एक ही तुम हो
तुम मैं हो
मैं तुम हूँ
कहो कितने बड़े हो तुम अब
अपने शरीर जितने ?
क्या उम्र है तुम्हारी
दो तिथियों के बीच गणित का खेल ?
कितना जी पाए हो अब तक
कितने जीने की है इक्षा कहो ?
मानते हो मेरी बात ?
समझते हो क्या तुम
मैं जो कह रहा हूँ?
नहीं न ?
चलो जाने दो...
फिर पढना मुझे
फिर कभी
किसी और दिन
अभी तुम तुम हो
तुम मैं नहीं ...
तुम आओगे एक दिन
मैं जानता हूँ
स्वेत वस्त्रों में
युध भूमि में जय-पराजय को रख कर अपने पीछे
हँसते हुए
तुम्हारे वस्त्रों पर कोई दाग नहीं होगा
तुम आज़ाद होगे
तुम मैं होगे
मैं तुम हूँगा
ये होगा मैं देखता हूँ
इतना ही होना है क्यूंकि
इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं है
आशय नहीं है
इस काल चक्र का
यहाँ सब कुछ एक ही है
और एक में ही सिमट रहा है ...
कितनी पंक्तियों की ये कविता कहो ?
खाली पन्ना ही तो है ...
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- ये तुम्हारी कविता है
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