फूल खुशबू के लिये बागों को फिजायें चाहियें
मुझको हंसने के लिए किसकी रजायें चाहियें
लडखडाता रह न जाऊं मैं ठोकरें खाता हुआ
थाम लें जो मुझको अब आज वो बाहें चाहियें
घुटता है दम कैफियत है सांस भारी हो रही
जिंदगी जीने की खातिर ताज़ी हवायें चाहियें
भर न पायें जख्म मेरे याद कर के बीती बात
याद करके भूल जाने की अदायें चाहियें
कसते हैं जो तंज सूरत पर मेरी इस शहर में
ऐ खुदा उनको मेरी माँ सी निगाहें चाहियें
राजयें*: is word ki meaning confirm karni hai mujhe....
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
Monday, November 29, 2010
Sunday, November 28, 2010
न कहीं रहा कोई जिसे हाल-ऐ-दिल कहूं
न कहीं रहा कोई जिसे हाल-ऐ-दिल कहूं
हुआ क़त्ल मैं पर किसे आज कातिल कहूं
मेरी सांस जब रुकी वो था बस एक मेरे करीब
इस शाजिश-ऐ-बद में उसे कैसे शामिल कहूं
मिला जख्म दर्द-ओ-गम मुझे उसके शहर से
अब सोचता मैं के क्या उल्फत-ऐ-हासिल कहूं
यहाँ क्या है गर्द के सिवा हर चीज है मामूली
जिया जाए किसके लिए किसे जीने के काबिल कहूं
वो तो मचलता रहा मिलने को मैं ही नहीं गया
मैं उसे लहर कहूं 'चक्रेश' को साहिल कहूं
हुआ क़त्ल मैं पर किसे आज कातिल कहूं
मेरी सांस जब रुकी वो था बस एक मेरे करीब
इस शाजिश-ऐ-बद में उसे कैसे शामिल कहूं
मिला जख्म दर्द-ओ-गम मुझे उसके शहर से
अब सोचता मैं के क्या उल्फत-ऐ-हासिल कहूं
यहाँ क्या है गर्द के सिवा हर चीज है मामूली
जिया जाए किसके लिए किसे जीने के काबिल कहूं
वो तो मचलता रहा मिलने को मैं ही नहीं गया
मैं उसे लहर कहूं 'चक्रेश' को साहिल कहूं
Tuesday, November 23, 2010
ये तो धड़कन का कसूर है जो जिन्दा होने का एहद कराती है
ये तो धड़कन का कसूर है जो जिन्दा होने का एहद कराती है
मौत आये मुझे बरसो गुजारें बस यूँही सांस आती जाती है
सैकड़ों खंजर हैं मेरी छाती में, खूँ का कतरा नहीं है कोई मगर;
काश समझ पाते ये लोग यहाँ, कलम स्याही कहाँ से लाती है ?
बैठे हैं यहाँ आज मेरी महफ़िल में, इस शहर के समझदार कई
हर शेर पे बहोत खूब कहते हैं, जाने कैसे इन्हें हर बात समझ आती है
मेरा साया मुझको हर शाम एक वही पुराना सवाल दे जाता है
सारा दिन मुट्ठी कस कर रखी थी बंद मैंने ये रेत कैसे सरक जाती है
हर शख्स यहाँ सीते आया है घावों को, रफू किये हैं जाने कितने
'चक्रेश' देखना कैसे जिंदगी ये तुझको, एक दिन दरजी बनाती है
मौत आये मुझे बरसो गुजारें बस यूँही सांस आती जाती है
सैकड़ों खंजर हैं मेरी छाती में, खूँ का कतरा नहीं है कोई मगर;
काश समझ पाते ये लोग यहाँ, कलम स्याही कहाँ से लाती है ?
बैठे हैं यहाँ आज मेरी महफ़िल में, इस शहर के समझदार कई
हर शेर पे बहोत खूब कहते हैं, जाने कैसे इन्हें हर बात समझ आती है
मेरा साया मुझको हर शाम एक वही पुराना सवाल दे जाता है
सारा दिन मुट्ठी कस कर रखी थी बंद मैंने ये रेत कैसे सरक जाती है
हर शख्स यहाँ सीते आया है घावों को, रफू किये हैं जाने कितने
'चक्रेश' देखना कैसे जिंदगी ये तुझको, एक दिन दरजी बनाती है
Wednesday, November 17, 2010
मैं पूछता रहा उससे के
मैं पूछता रहा उससे के दरिया-ऐ-हयात गहरा तो नहीं
जूँ न रेंगी उसके कानो पे, नाखुदा कहीं बेहरा तो नहीं?
गहराई वाली जगहों पे दरिया में हलचल कम होती है
मैं पत्थर लेकर देख रहा हूँ, के कहीं पानी ठहरा तो नहीं
लोगों के कन्धों से ऊपर अब सब काला काला दिखता है
किस जुबाँ ये सब लिखा है, फारसी में हर चेहरा तो नहीं
जाने कितने ठुकरायें हैं मैंने, इस आज़ादी की चाहत में
हर ताज देख कर डरता हूँ, कम्बखत कहीं सेहरा तो नहीं
झूठ मूठ का क्यूँ हँसते हो ये मुखोटे उतार फेंको यारों
आईनों की सुनते हो क्यूँ, बदसूरत कोई चेहरा तो नहीं
बैठा है संजीदा सा 'चक्रेश', यहाँ हर महफ़िल में
चुप चुप सा क्यूँ वो रहता है कुछ कहने पे पेहरा तो नहीं
जूँ न रेंगी उसके कानो पे, नाखुदा कहीं बेहरा तो नहीं?
गहराई वाली जगहों पे दरिया में हलचल कम होती है
मैं पत्थर लेकर देख रहा हूँ, के कहीं पानी ठहरा तो नहीं
लोगों के कन्धों से ऊपर अब सब काला काला दिखता है
किस जुबाँ ये सब लिखा है, फारसी में हर चेहरा तो नहीं
जाने कितने ठुकरायें हैं मैंने, इस आज़ादी की चाहत में
हर ताज देख कर डरता हूँ, कम्बखत कहीं सेहरा तो नहीं
झूठ मूठ का क्यूँ हँसते हो ये मुखोटे उतार फेंको यारों
आईनों की सुनते हो क्यूँ, बदसूरत कोई चेहरा तो नहीं
बैठा है संजीदा सा 'चक्रेश', यहाँ हर महफ़िल में
चुप चुप सा क्यूँ वो रहता है कुछ कहने पे पेहरा तो नहीं
Sunday, November 14, 2010
one liners
"मैं नहीं था तो भला वो कौन था जो लिख गया,
के मेरे पहले भी कोई था मेरे जैसा कहीं ........... "
ख्वाब बुनिय ख्वाब में ख़्वाबों ही की जुबाँ...
सोचूँ के न सोचूँ के सोचूँ तो कुछ होता भी नहीं ...
अब के सोऊँ तो न जगाने आना कोई
कई रातों का जागा हुआ हूँ मैं
तुमसा ही मैं भी एक कैदी हूँ यारों
अपनी कैद से भागा हुआ हूँ मैं
मैं हैरान था तो सब थें हैराँ मुझसे
सब थें हैराँ मुझसे सो मैं हैराँ था
के मेरे पहले भी कोई था मेरे जैसा कहीं ........... "
ख्वाब बुनिय ख्वाब में ख़्वाबों ही की जुबाँ...
सोचूँ के न सोचूँ के सोचूँ तो कुछ होता भी नहीं ...
अब के सोऊँ तो न जगाने आना कोई
कई रातों का जागा हुआ हूँ मैं
तुमसा ही मैं भी एक कैदी हूँ यारों
अपनी कैद से भागा हुआ हूँ मैं
मैं हैरान था तो सब थें हैराँ मुझसे
सब थें हैराँ मुझसे सो मैं हैराँ था
Thursday, November 11, 2010
इन दरख्तों से आती आवाजों के पीछे
=.== .== === .==, .===== .=====
इन दरख्तों से आती आवाजों के पीछे, कहीं कोई पिन्हा कहानी तो होगी
गौर दे कर कभी खामोशी को सुनिये, कहीं कोई लुटती जवानी तो होगी
अब सियासत को रुसवा रियाया करे क्यूँ,अगर सोचिये तो जी हम भी क्या कम हैं
खुद परस्ती के चोलों में जो खोया अदम है, कहीं पर वो कीमत चुकानी तो होगी
जंगलों से परिंदे हैं गायब अचानक, बड़ी देर से है इक सन्नाटा सा छाया
घोंसलों का न जानूं अब क्या हाल होगा, हवायें चलेंगी रात तूफानी तो होगी
है लहू में जो डूबा ये आलम शहर का, ये लाशों के ढेरों पे रोती जो मायें
आह का असर है होना बस बाकी है नादाँ, लहू संग जाया कुर्बानी तो होगी
अब के मौसम अजब है खिजाएँ न जाएँ, दरिया है सूखा बगिया है वीराँ
फूल देखे ज़माना हुआ आँख प्यासी, कहीं कोई बच्ची हंसानी तो होगी
बाद मेरे न कहना किसी से ये यारों, के इन गलियों में हमारा था आना जाना
मुश्किलों से बड़ी है कुछ शुहरत कमाई, रखों मुह पे ताले ये बचानी तो होगी
बिकता है दुकानों में सब कुछ यहाँ पर, कारोबारी शेहेर है सौदागर ज़माना
जो कभी आप यूँही आजाओ यहाँ तो, कहीं अपनी टोपी छुपानी तो होगी
खाब में भी यहाँ चीखें सुनता रहा जो, कहाँ से वो 'चक्रेश' नजाकत ले आये
कभी तो तेरे हुस्न पर लिख सकूँगा, कभी ये कलम कुछ रूमानी तो होगी ?
कब तलक ओ जवानों जज्बों को दबाये, मदाड़ी के खेलों पे बजाओगे ताली
चुदियाँ ही पहन लो गर गैरत न हो तो, लहू की अब आग दिखानी तो होगी
किस काम की रही अब तुम्हारी जवानी, इसे खौले तो ज़माना है गुजरा
जो कभी आप रख कर कोई चीज भूलें, रखे हुए वो यूँही पुरानी तो होगी
इन दरख्तों से आती आवाजों के पीछे, कहीं कोई पिन्हा कहानी तो होगी
गौर दे कर कभी खामोशी को सुनिये, कहीं कोई लुटती जवानी तो होगी
अब सियासत को रुसवा रियाया करे क्यूँ,अगर सोचिये तो जी हम भी क्या कम हैं
खुद परस्ती के चोलों में जो खोया अदम है, कहीं पर वो कीमत चुकानी तो होगी
जंगलों से परिंदे हैं गायब अचानक, बड़ी देर से है इक सन्नाटा सा छाया
घोंसलों का न जानूं अब क्या हाल होगा, हवायें चलेंगी रात तूफानी तो होगी
है लहू में जो डूबा ये आलम शहर का, ये लाशों के ढेरों पे रोती जो मायें
आह का असर है होना बस बाकी है नादाँ, लहू संग जाया कुर्बानी तो होगी
अब के मौसम अजब है खिजाएँ न जाएँ, दरिया है सूखा बगिया है वीराँ
फूल देखे ज़माना हुआ आँख प्यासी, कहीं कोई बच्ची हंसानी तो होगी
बाद मेरे न कहना किसी से ये यारों, के इन गलियों में हमारा था आना जाना
मुश्किलों से बड़ी है कुछ शुहरत कमाई, रखों मुह पे ताले ये बचानी तो होगी
बिकता है दुकानों में सब कुछ यहाँ पर, कारोबारी शेहेर है सौदागर ज़माना
जो कभी आप यूँही आजाओ यहाँ तो, कहीं अपनी टोपी छुपानी तो होगी
खाब में भी यहाँ चीखें सुनता रहा जो, कहाँ से वो 'चक्रेश' नजाकत ले आये
कभी तो तेरे हुस्न पर लिख सकूँगा, कभी ये कलम कुछ रूमानी तो होगी ?
कब तलक ओ जवानों जज्बों को दबाये, मदाड़ी के खेलों पे बजाओगे ताली
चुदियाँ ही पहन लो गर गैरत न हो तो, लहू की अब आग दिखानी तो होगी
किस काम की रही अब तुम्हारी जवानी, इसे खौले तो ज़माना है गुजरा
जो कभी आप रख कर कोई चीज भूलें, रखे हुए वो यूँही पुरानी तो होगी
Thursday, November 4, 2010
ज़िन्दगी तुने मुझे ये आज क्या सिखला दिया
ज़िन्दगी तुने मुझे ये आज क्या सिखला दिया
सैकड़ों तिमिरों के आगे उजाला दिखला दिया
मैं निर्बोध अबोध बालक निराश ना हताश था
तुने खुद ही दीप नयी आशाओं का जला दिया
क्या नहीं कर लूं अगर मैं ठान लूं करने की तो
भूल गया था अपना तेज़ मैं तुने याद दिला दिया
देखता रह दूर से अब बड़ चलें मेरे कदम
ऐ निराशाओं के सागर तुझको मैंने भुला दिया
सैकड़ों तिमिरों के आगे उजाला दिखला दिया
मैं निर्बोध अबोध बालक निराश ना हताश था
तुने खुद ही दीप नयी आशाओं का जला दिया
क्या नहीं कर लूं अगर मैं ठान लूं करने की तो
भूल गया था अपना तेज़ मैं तुने याद दिला दिया
देखता रह दूर से अब बड़ चलें मेरे कदम
ऐ निराशाओं के सागर तुझको मैंने भुला दिया
Wednesday, November 3, 2010
तनहा तन्हा
तनहा तन्हा हमको यहाँ लगने लगा है ये jahan
कैसे कटे अब ये सफ़र, कोई nahi है कारवाँ
साहिल पे गुजार दें अब सोचते हैं ये उमर
मौज-ओ-दरिया प्यार का है दूर हमसे अब वहाँ
(मौज-ओ: 22 दरि:12)
इन गुहरों का अब क्या होगा ले आई जिनको लहर
किसे दूँ तोहफे प्यार के है कौन अपना जान-ऐ-जाँ
इस शाम ने हमको रुलाया फिर अपने उसी सवाल से
आया कहाँ से तू बता? अब जाएगा कह तू कहाँ ?
जब ख़ाक हम हो जाएँ तो आना कफ़न पे तुम सबा
आना न इस रात अभी, साया नहीं कोई यहाँ....
कैसे कटे अब ये सफ़र, कोई nahi है कारवाँ
साहिल पे गुजार दें अब सोचते हैं ये उमर
मौज-ओ-दरिया प्यार का है दूर हमसे अब वहाँ
(मौज-ओ: 22 दरि:12)
इन गुहरों का अब क्या होगा ले आई जिनको लहर
किसे दूँ तोहफे प्यार के है कौन अपना जान-ऐ-जाँ
इस शाम ने हमको रुलाया फिर अपने उसी सवाल से
आया कहाँ से तू बता? अब जाएगा कह तू कहाँ ?
जब ख़ाक हम हो जाएँ तो आना कफ़न पे तुम सबा
आना न इस रात अभी, साया नहीं कोई यहाँ....
Monday, November 1, 2010
तुमने ऐसा क्या किया
तीरे नज़र का दोष है
मारा मारा फिरे है वो
तुमने ऐसा क्या किया
बेचारा फिरे है
तू दिल-फरेब है यहाँ
महफ़िल सजा रहा
क्या पता किसी सह्रांव में
बेसहारा फिरे है वो
इश्क का कसूर है
कुछ होश नहीं उसे
आप का है करम
नाकारा फिरे है वो
आपने घर सजा लिया
हंस कर रकीब संग
आज तलक आस में
कंवारा फिरे है वो
जाना न मज़ार-ऐ-कैश पे
वो अब नहीं वहाँ
कहते हैं आज कल कहीं
आवारा फिरे है वो
मारा मारा फिरे है वो
तुमने ऐसा क्या किया
बेचारा फिरे है
तू दिल-फरेब है यहाँ
महफ़िल सजा रहा
क्या पता किसी सह्रांव में
बेसहारा फिरे है वो
इश्क का कसूर है
कुछ होश नहीं उसे
आप का है करम
नाकारा फिरे है वो
आपने घर सजा लिया
हंस कर रकीब संग
आज तलक आस में
कंवारा फिरे है वो
जाना न मज़ार-ऐ-कैश पे
वो अब नहीं वहाँ
कहते हैं आज कल कहीं
आवारा फिरे है वो
उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही
उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा ख़ुद के हा...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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(One of the four topics for essay from UPSC paper 2012) Sharaabiyon ko akeedat hai tumse, jo tu pilade to paani sharaab ho jaaye Jis...