Thursday, December 23, 2010

बात उसके समझ न आई कभी

इक सहरांव था मेरे सीने में

पड़ी बंजर इक पथरीली ज़मीन थी जज्बातों की

और था सैलाब अश्कों का मेरी आँखों में

जो न छलका इक भी अश्क मेरी पलकों से

क्यूँ न समझा वो मेरी मजबूरी ....

न करता वो मुझको समझने की जो गलती

तो शायद

बात समझ उसको आजाती

जुगनू कब ख़ुशी स मुट्ठी में बंद हुआ करते हैं

हाथ फैलाकर कभी आँख बंद करके देखो तो

वो तो अक्सर हथेलियाँ दूंदते हैं सुस्ताने को ...

वो न समझा मेरी मजबूरी

बात उसके समझ न आई कभी

मई तो जुगनू हूँ

अन्धीरे से है पहचान मेरी

वो खामोखां उजाले करता था

का मिला हूँ मैं उजालों में

बात उसको कोई समझाए ज़रा

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