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कभी समय के साथ जो चलकर
भूल गया मैं मुस्काना
मेरी कविताओं फिर तुम भी
धू-धू कर के जल जाना
बहुत देर से चलता आया
बिन सिसकी बिन आहों के
आज अगर मैं फूट के रो दूं
तुम बिलकुल ना घबराना
मैं तो इक चन्दन की लकड़ी
यज्ञ-हवन में जलता हूँ
तुम हर मंत्र के अंतिम स्वाहा पर
बन आहूति जल जाना
द्वेष ना करना पढने वालों से
जो तुम्हे मामूली कहते हैं
बन जीवन का अंतर्नाद तुम
रोम रोम में बस जाना
भूत की खिड़की बंद कर चूका
मैं वर्त्तमान में लिखता हूँ
तुम भविष्य की निधि हो मेरी
आगे चल कर बढ़ जाना
ह्रदय कोशिकाओं में मेरी
शब्द घुल रहें बरसों से
लहू लाल से श्वेत हो चूका
तुमको अब क्या समझाना
अर्थ ढूढने जो मैं निकलूँ
मार्ग सभी थम जाते हैं
दूर दूर तक घास-फूंस है
मृग-तृष्णाओं पे पीछे क्या जाना
नदी के कल कल निर्मल जल सी
बहती रहो रुक जाना ना
झूठ सच यहीं पे रख दो
सागर में जाके मिल जाना