ये नमी ही क्या कुछ कम थी
जो रुलाया मुझको ऐसे
इक हंसी मेरे लबों की
क्यूँ तुमको न रास आई .
मैं मुन्तजिर उस शब् का
जो ऐसा मुझे सुलाए
के कातिलों तुम्हे फिर
ता -उम्र नींद ना आये
कभी खार बन के आये
कभी ज़हर ज़िन्दगी का
कहूँ कैसे तुमको अपना
तुम मुझे न जान पाए
इक झूठ मुझको देखर
मेरे हौसले बढाये
फिर हाथ काट करके
मुझे रोकने चले हो
मैं ही बना निशाना
तुम सबके बदगुमाँ का
मैं कबसे सोचता था
मेरा क़त्ल कैसे होगा
न कभी इधर फिर आना
लेकर के चाक दामन
मैं नजर फेर लूँगा
अभी से तुम्हे बता दूँ
न कभी तुमको कोई
अपना कभी कहेगा
न कहीं तुम्हे कभी भी
चक्रेश ही मिलेगा
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
मेरे सच्चे शेर
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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5 comments:
Bahut khoob
बहुत सुन्दर्।
बहुत सुन्दर और कोमल...बेहतरीन रचना।
सर्वप्रथम नवरात्रि पर्व पर माँ आदि शक्ति नव-दुर्गा से सबकी खुशहाली की प्रार्थना करते हुए इस पावन पर्व की बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनायें।
सुंदर रचना ...आभार।
लाजवाब ... दर्द देने वाले पर तरस नहीं होना चाहिए ...
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