जिंदगी ही तो है
कोई शतरंज का खेल थोड़ी है
के हार-जीत में ही दिलचस्पी ली जाए
कौन खेल रहा है और किसके साथ
ये भी कहाँ मालूम है किसी को यहाँ यारों ?
जिंदगी ही तो है
कोई संजीदा सी ग़ज़ल थोड़ी है
के डूब कर सुनी जाए और सोचा जाए
के आखिर ऐसा क्यूँ होता है ?
नाग्मानिगार कौन, किरदार कौन और फनकार कौन
ये भी कहाँ मालूम है कैसी को यहाँ यारों ?
जिंदगी ही तो है
चलती रेल थोड़ी ही है
के जरूरी हो किसी सोचे हुए मकाम तक पहुंचना
और ये सोचना के अब आगे और कहाँ
जो चल रहा है वही मकाम होता हो शायद
कहाँ से आये कहाँ चले ?
ये भी कहाँ मालूम है किसी को यहाँ यारों
जिंदगी ही तो है
कोई पत्थर की लकीर थोड़ी ही है
के खिंच गयी तो हो जाए मिटाना मुश्किल
जो कह दिया, सो कर दिया, कभी रो दिए और कभी हंस दिए
क्या कहा, क्या किया, रोये क्यूँ और क्यूँ हँसे
ये भी कहाँ मालूम है किसी को यहाँ यारों
ज़िन्दगी ही तो है
और मैं इसे जीता हूँ
हर जागते पल में
एक फनकार की तरह
एक किरदार की तरह
बे बहार, बे वज़न, और बे तुकी सी जो है दिख रही
वो ग़ज़ल, वो सुखन, वो नग्मा मेरा है
और महक रही है मेरी रूह हर हर्फ़ में
कुछ असरार की तरह
क्या किया, क्यूँ किया, क्या न किया और क्यूँ नहीं
में जी मेरा लगता कहाँ
मैं जी चला ये जिंदगी
इक अंदाज़ में जो मेरा ही था
मीरा का, दाग या अहमद फ़राज़ का नहीं
-चक्रेश-