Monday, April 30, 2012

बारहाँ एक ही मंज़र याद आये







बारहाँ एक ही मंज़र याद आये
इक सिसकता समंदर याद आये
आज दामन जो है खूंरेज ऐसे
उसके हाथों का खंजर याद आये

जब कभी टूटते हैं पैमाने
मुझको बिखरा हुआ घर याद आये

खुल रहा है नया सफ़्हा कोई
पिछले किस्से का सिकंदर याद आये

कल तलक वो जो था दिल का रिश्ता
वो नहीं दर्मियाँ पर याद आये

-चक्रेश-

2 comments:

udaya veer singh said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति,..बेहतरीन रचना

chakresh singh said...

Thank you Sir

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