Wednesday, November 7, 2012

के शायद जिंदगी है यही


इश्क ऐ दिल तुझे न रास आएगा 
तू फकत धड़कनें सुनाता चल
गैर बनते हैं सब रफीक अपने 
तू मुसलसल उन्हें भुलाता चल 

माँ के आंसूं जो दर्द देते हों 
सिसकियाँ घर की गर न जीने दें 
आँख में गर्मिए-लहू हो अगर 
ज़िन्दगी जख्म को न सीने दे 
ऐ मेरे दिल तो तू ये कर लेना 
मुसकरा कर के दर्द भर लेना 
दौड़ के छू लेना आसमानों को 
सारी कायनात अपनी कर लेना 

पर न रोना एक भी कतरा आंसू 
न कहना किसी से क्या गुज़री है 
जप्त कर लेना गेम-ऐ-हस्ती 
ठोकरों में रख तमाम बातों को 
कह देना के जिंदगी हसीं सी है 
और इस जैसा कुछ भी तो नहीं 

न कहना ऐ दिल के क्यूँ जिन्दा हो 
क्यूँ नहीं खुद से तुम शर्मिंदा हो 
न कहना के जला लो तुम अपनी हस्ती 
और न देखो ख्वाब जन्नत के 
न कहना ऐ दिल किसी से ये 
के मैं इतना ज़रूर जानता हूँ अभी 
के कहीं किसी छोटे से कस्बे  में 
एक खूबसूरत सी नन्ही बच्ची है 
जो सुन रही तेरी बातों को 
जो तुझे खुदा समझती है 
सोच उसपर के क्या गुज़रेगी
वो जो नेहर को नदी समझती है 
उसकी कागजा की नावें डूब जायेंगी 
और वो फिर कभी न नांव बनाएगी 
जब पतझड़ में सब फूल मुर्झा जायेंगे 
वो सावन से रूठ जायेगी 
उसकी तब आस छूट जायेगी 
ऐ मेरे दिल तू सब सह लेना 
जिंदगी के ज़हर को हंस के पी लेना 

न कहना के ख्वाब टूट जाते हैं 
देखते देखते रिश्ते छूट जाते हैं 
न कहना के दोस्त सब हैं मतलब के 
न कहना के सबपे है वही जादू 
और कोई भी न इससे बच पाया है 
तू जिसे जिंदगी समझता है 
क्या पता वो इसी को कहते हों 

ऐ मेरे दिल तुझे इश्क रास न आएगा 
तेरा हर चाहने वाला तुझसे दूर चला जाएगा 
दर्द फिर और भी तुझे सताएगा 
तू जी नहीं पायेगा 

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