Monday, April 30, 2012

बारहाँ एक ही मंज़र याद आये







बारहाँ एक ही मंज़र याद आये
इक सिसकता समंदर याद आये
आज दामन जो है खूंरेज ऐसे
उसके हाथों का खंजर याद आये

जब कभी टूटते हैं पैमाने
मुझको बिखरा हुआ घर याद आये

खुल रहा है नया सफ़्हा कोई
पिछले किस्से का सिकंदर याद आये

कल तलक वो जो था दिल का रिश्ता
वो नहीं दर्मियाँ पर याद आये

-चक्रेश-

Sunday, April 29, 2012

जिंदगी ही तो है


जिंदगी ही तो है
कोई शतरंज का खेल थोड़ी है
के हार-जीत में ही दिलचस्पी ली जाए
कौन खेल रहा है और किसके साथ
ये भी कहाँ मालूम है किसी को यहाँ यारों ?

जिंदगी ही तो है
कोई संजीदा सी ग़ज़ल थोड़ी है
के डूब कर सुनी जाए और सोचा जाए
के आखिर ऐसा क्यूँ होता है ?
नाग्मानिगार कौन, किरदार कौन और फनकार कौन
ये भी कहाँ मालूम है कैसी को यहाँ यारों ?

जिंदगी ही तो है
चलती रेल थोड़ी ही है
के जरूरी हो किसी सोचे हुए मकाम तक पहुंचना
और ये सोचना के अब आगे और कहाँ
जो चल रहा है वही मकाम होता हो शायद
कहाँ से आये कहाँ चले ?
ये भी कहाँ मालूम है किसी को यहाँ यारों

जिंदगी ही तो है
कोई पत्थर की लकीर थोड़ी ही है
के खिंच गयी तो हो जाए मिटाना मुश्किल
जो कह दिया, सो कर दिया, कभी रो दिए और कभी हंस दिए
क्या कहा, क्या किया, रोये क्यूँ और क्यूँ हँसे
ये भी कहाँ मालूम है किसी को यहाँ यारों

ज़िन्दगी ही तो है
और मैं इसे जीता हूँ
हर जागते पल में
एक फनकार की तरह
एक किरदार की तरह
बे बहार, बे वज़न, और बे तुकी सी जो है दिख रही
वो ग़ज़ल, वो सुखन, वो नग्मा मेरा है
और महक रही है मेरी रूह हर हर्फ़ में
कुछ असरार की तरह
क्या किया, क्यूँ किया, क्या न किया और क्यूँ नहीं
में जी मेरा लगता कहाँ

मैं जी चला ये जिंदगी
इक अंदाज़ में जो मेरा ही था
मीरा का, दाग या अहमद फ़राज़ का नहीं

-चक्रेश-



 

Sunday, April 22, 2012

तौबा ये असरार तुम्हारे


तौबा ये असरार तुम्हारे
पलकों के हथियार तुम्हारे

आँखों के रास्तों पे जा बैठे
दो दो हवलदार तुम्हारे

कासिद के हाथों ही भिजवा दो
शिकवा-फुगाँ-जार तुम्हारे

चंदा के मानिंद हो लेकिन
मुश्किल हैं दीदार तुम्हारे

-ckh-

Thursday, April 19, 2012

मुन्तज़िर आपके इशारों के


मुन्तज़िर आपके इशारों के 
हैं सभी गुंचा-ओ-गुल बहारों के

ज़ुल्फ़ बिखरे अदा से कुछ यूँ के 
रात तुह्फे दे चाँद तारों के 

आप खामोश मत रहा करिए 
कान होते हैं इन दीवारों के 

Tuesday, April 17, 2012

गिला ऐ बुतों क्या करना, उसकी खता नहीं है

गिला ऐ बुतों क्या करना, उसकी खता नहीं है
नासमझ है वो न समझा, वाईज खुदा नहीं है

दिल-ऐ-आईने से पूछा, मुझको खुदी दिखा दे
मेरा अक्स हंस के बोला, उसको पता नहीं है

कभी तिश्नगी पे हँसना, कभी बेकली पे रोना
कहता हूँ फिरभी अबतक, मुझको नशा नहीं है !

वो सवाल पूछता है, और मैं ये देखता हूँ
ये फ़कीर भी है कैसा, बिलकुल जला नहीं है !

कुछ भी नहीं है लेकिन, 'चक्रेश' ये समझलो
ये खलिश रहेगी इसकी, कोई दवा नहीं है ||




Friday, April 13, 2012

स्वप्न

एक नदी
एक पतली - लम्बी लकड़ी की नांव
और सुबह के उगते सूरज से
सिन्दूरी हुआ नदी का आँचल
नांव पे बैठा मैं पतवार चलता
चप्पू की हर चुम्बन पर,
शर्म से नदी सिहर सी जाती और भंवर बनती खो जाती
जाने कब लेकिन इस सब में
मैं नवका से अलग हुआ
और डूबता गया किसी और नए स्वप्न के भीतर
अब संभला तो मैंने पाया
खड़ा हुआ हूँ
एक नदी पर
बिन नवका - पतवार बिना
और दूर पर तुम बैठी हो
पीली सी इक साड़ी में
अपने बालों को बिखराए
फुर्सत में पाँव फैलाए
मैं उत्सुक चलता ही जाता
पास तुम्हारे
तुम हंसती पास बुलाती
तुम हो मैं हूँ नांव नहीं है
और ना डूबने का आश्वाशन
प्रेम ही होगा
प्रेम ही होगा
धाम कोई है
ये पावन पावन
मैं कान्हा हूँ
तुम मीरा हो
मथुरा है या है ब्रिन्दावन
स्वप्न लोक में
दिव्य लोक ये
जगमग जगमन देहक रहा है
मेरे उर में अब तक तेरा
पवन आँचल
महक रहा है
महक रहा है





Thursday, April 12, 2012

वो तिरछी नज़र का, असर हो चला है

वो तिरछी नज़र का, असर हो चला है
निशानों से घायल, जिगर हो चला है

जो कहता कभी था, मुहब्बत न करना
वही शख्स शायर, मगर हो चला है

जमाने के डर से, संभाला था जिसको
वो आँखों का आँसूं, गुहर हो चला है

Tuesday, April 10, 2012

इक रोज़ तेरी जुल्फों की मैं शाम चाहता हूँ

इक रोज़ तेरी जुल्फों की मैं शाम चाहता हूँ

दिल-ऐ - आईने में तेरे मेरा नाम चाहता हूँ



ऐ कासिद-ओ-हवाओं वो मिलें तो उनसे कहना

लिखता रहूँगा लेकिन इक पयाम चाहता हूँ


भले बेखुदी समझलो यही राह अब है मेरी

तेरा साथ हो जहाँ पे वो मकाम चाहता हूँ


बड़ी धूप पड़ रही है बड़ा चाक दिल है मेरा

तेरे गेसोवों के साए मैं तमाम चाहता हूँ



ये संग-दिली हो कबतक भला क्यूँ ये दायरे हों

जहाँ इश्क हो सदाकत वो निजाम चाहता हूँ




-ckh-

Thursday, April 5, 2012

अच्छा होना समस्या है, गलती नहीं

अच्छा होना समस्या है, गलती नहीं

भीड़ में अकेला महसूस करना मजबूरी है

कमजोरी नहीं

जो हम रुसवा हुए बस्ती बस्ती

कौन कहता है के इज्ज़त हार आये हैं?

के लोगों की बातें दिल-ऐ-शहंशाह को कब हरा पायी हैं

Monday, April 2, 2012

अच्छा होना समस्या है

अच्छा होना समस्या है, गलती नहीं
भीड़ में अकेला महसूस करना मजबूरी है
कमजोरी नहीं
जो हम रुसवा हुए बस्ती बस्ती
कौन कहता है के इज्ज़त हार आये हैं?
के लोगों की बातें दिल-ऐ-शहंशाह को कब हरा पायी हैं


ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...