Thursday, November 11, 2010

इन दरख्तों से आती आवाजों के पीछे

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इन दरख्तों से आती आवाजों के पीछे, कहीं कोई पिन्हा कहानी तो होगी
गौर दे कर कभी खामोशी को सुनिये, कहीं कोई लुटती जवानी तो होगी

अब सियासत को रुसवा रियाया करे क्यूँ,अगर सोचिये तो जी हम भी क्या कम हैं
खुद परस्ती के चोलों में जो खोया अदम है, कहीं पर वो कीमत चुकानी तो होगी

जंगलों से परिंदे हैं गायब अचानक, बड़ी देर से है इक सन्नाटा सा छाया
घोंसलों का न जानूं अब क्या हाल होगा, हवायें चलेंगी रात तूफानी तो होगी

है लहू में जो डूबा ये आलम शहर का, ये लाशों के ढेरों पे रोती जो मायें
आह का असर है होना बस बाकी है नादाँ, लहू संग जाया कुर्बानी तो होगी

अब के मौसम अजब है खिजाएँ न जाएँ, दरिया है सूखा बगिया है वीराँ
फूल देखे ज़माना हुआ आँख प्यासी, कहीं कोई बच्ची हंसानी तो होगी

बाद मेरे न कहना किसी से ये यारों, के इन गलियों में हमारा था आना जाना
मुश्किलों से बड़ी है कुछ शुहरत कमाई, रखों मुह पे ताले ये बचानी तो होगी

बिकता है दुकानों में सब कुछ यहाँ पर, कारोबारी शेहेर है सौदागर ज़माना
जो कभी आप यूँही आजाओ यहाँ तो, कहीं अपनी टोपी छुपानी तो होगी


खाब में भी यहाँ चीखें सुनता रहा जो, कहाँ से वो 'चक्रेश' नजाकत ले आये
कभी तो तेरे हुस्न पर लिख सकूँगा, कभी ये कलम कुछ रूमानी तो होगी ?


कब तलक ओ जवानों जज्बों को दबाये, मदाड़ी के खेलों पे बजाओगे ताली
चुदियाँ ही पहन लो गर गैरत न हो तो, लहू की अब आग दिखानी तो होगी

किस काम की रही अब तुम्हारी जवानी, इसे खौले तो ज़माना है गुजरा
जो कभी आप रख कर कोई चीज भूलें, रखे हुए वो यूँही पुरानी तो होगी

4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!

Lovenesh said...

Chakresh ji aapka jawab nahi...

' मिसिर' said...

बेहतरीन कलाम चक्रेश जी ,बधाई !

chakresh singh said...

App sabka ka bahut dhanyawaad

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