Sunday, November 28, 2010

न कहीं रहा कोई जिसे हाल-ऐ-दिल कहूं

न कहीं रहा कोई जिसे हाल-ऐ-दिल कहूं
हुआ क़त्ल मैं पर किसे आज कातिल कहूं

मेरी सांस जब रुकी वो था बस एक मेरे करीब
इस शाजिश-ऐ-बद में उसे कैसे शामिल कहूं

मिला जख्म दर्द-ओ-गम मुझे उसके शहर से
अब सोचता मैं के क्या उल्फत-ऐ-हासिल कहूं

यहाँ क्या है गर्द के सिवा हर चीज है मामूली
जिया जाए किसके लिए किसे जीने के काबिल कहूं

वो तो मचलता रहा मिलने को मैं ही नहीं गया
मैं उसे लहर कहूं 'चक्रेश' को साहिल कहूं

1 comment:

POOJA... said...

बहुत खूब...

मेरे सच्चे शेर

 बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow)