Monday, December 13, 2010

कभी कोई नही मेरा, कभी कायनात मेरी है

कभी कोई नही मेरा, कभी कायनात मेरी है
अजब हालत हैं अपने , अलग ही बात मेरी है

अजब है खेल ये यारा दो चार मुहरों का
उधर गर शय कहीं तेरी, इधर फिर मात मेरी है

सुबो से शाम तक मैंने फकत मेहमाँ नवाजी की
करूँ अब खुद से कुछ बातें, ये सारी रात मेरी है

सफीनों को समंदर में है इक दिन समां जाना
यहाँ है आज मेरी बारी, बड़ी खुश बारात मेरी है

सऊबत का असर ऐसा हुआ अंदाज़ पर मेरे
हर शख्स कहे शायर, ग़ज़ल हर बात मेरी है

3 comments:

संजय भास्‍कर said...

वाह ..क्या उम्दा ग़ज़ल है .

संजय भास्‍कर said...

भावों को मोतियों की तरह सुन्दर शब्दों में पिरोया है. बहुत खूब.शुभकामनायें.

संजय भास्‍कर said...

चक्रेश भाई, बहुत प्‍यारी गजल कही है। बधाई स्‍वीकारें।

मेरे सच्चे शेर

 बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow)