अपने ही आज दिल में खंजर उतारते हैं
बिखरा पड़ा वतन है सब घर सँवारते हैं
रखूँ क्यूँ मुह पे परदे झुका के सर मैं चलूँ क्यूँ
यहाँ लोग संसदों में कुरसी से मारते हैं
किया कुछ तो होगा मैंने सजा कौन देगा लेकिन ,
इतिहास कुल वधू के कपड़े उतारते हैं ..
लो मर गया परिंदा फडफडाता हुआ परों को ,
भूखे खड़े दरिन्दे छूल्हे निहारते हैं
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
मेरे सच्चे शेर
बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow) दरख़्तों को शिकायत है के तूफ़ाँ ...
-
(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
-
(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
-
उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा ख़ुद के हा...
2 comments:
रंगों का त्यौहार बहुत मुबारक हो आपको और आपके परिवार को|
achi prastuti
satik shabd
Post a Comment