Friday, March 25, 2011

रात की चादर ओढ़ खड़ी राहें


रात की चादर ओढ़ खड़ी राहें
सुस्ताती देखता हूँ
वही चार-छे छोटे-बड़े पेड़ सभी
फूल-पाती देखता हूँ

शेष नहीं अब कुछ,
शून्य हुआ सब कुछ,
शब्द सब मौन धरे हैं
उजियाला फूट रहा,
अन्धकार टूट रहा
नैन अश्रू से भरे हैं
कौन जान पाया भेद, जीवन लहर का
आती जाती देखता हूँ

मीत कई प्रेम नहीं,
भीड़ में भटकता,
चहरे मैं पढ़ रहा हूँ
स्वेत पद्मासिनी आशीष देवें
कविता मैं गढ़ रहा हूँ
क्या जानो अर्थ मैं, पत्थर की मूरत
मुस्काती देखता हूँ

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मेरे सच्चे शेर

 बड़ा पायाब रिश्ता है मेरा मेरी ही हस्ती से ज़रा सी आँख लग जाये, मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ (पायाब: shallow)