बागीचों में गुल और निगाहों में सपने;
जहाँ तक खिले थें, वहाँ तक ख़ुशी थी;
मुहल्लों से आगे, छतों से निकल कर;
मगर जिंदगी ये, कुछ भी नहीं थी;
मुझे थाम लेतीं जो माँ की वो बाहें ;
मुझे रोक लेतीं जो घर की वो राहें;
तो दिल क्या कभी तू ये जान पाता;
के तेरे हौसलों में कहाँ पर कमी थी;
No comments:
Post a Comment