Thursday, January 19, 2012

ये खलिश पल-चक्रेश- की जेब में (कलम को शुक्रिया)

ये खलिश पल रही लफ़्ज़ों के टुकड़ों पर
वगर्ना दिल तेरी क्या ज़ीस्त थी इस भरी भीड़ में
यहाँ लोग हैराँ हैं देख कर हुस्न को..
यहाँ हुस्न है मुशरूफ़, झूठी तारीफ़ में ..
एक दिल ..सच्चा दिल ...किस काम का यहाँ
यहाँ बिक जाते हैं सैकड़ों भीड़ में
टूट जाते हैं ठंढी सर्द रात में ..
पल रहा तू मगर चक्रेश के
अंदाज़-ऐ-बयाँ और स्याही पे
कोई फ़रिश्ता तुझे पालता भीड़ में
वगर्ना मर जाता तू भी सभी की तरह ..

3 comments:

संजय भास्‍कर said...

कितनी खूबसूरती से जज्बातोँ को उकेरा आपने

संजय भास्‍कर said...

आपका बयान हमेशा की तरह प्यारा!!

chakresh singh said...

thans Sanjay ji ..aap mere sabse poorane padhne waalon meni se hain...aap ka bahut aabhaari hun

उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नही

  उन पे रोना, आँहें भरना, अपनी फ़ितरत ही नहीं… याद करके, टूट जाने, सी तबीयत ही नहीं  रोग सा, भर के नसों में, फिल्मी गानों का नशा  ख़ुद के हा...