Thursday, March 8, 2012

हमसे आबाद थी तेरी महफ़िल

हमसे आबाद थी तेरी महफ़िल, खैर तू ये समझता  नहीं है
हर घड़ी आज़माता अदम को, खुद कभी भी उलझता नहीं है

हमने सदिओं से चाहा तुझी को, पर ये वेह्शत बढ़ी जा रही है
तू अगर देखता है ये आलम, बोल फिर क्यूँ बरसता नहीं है ?

सुर्ख होटों पे भी आज गम हैं, नर्म आँखों के कोने भी नम हैं
ऐ खुदा! हाथ उठाये ये बन्दे, बोल क्यूँ तू गरजता नहीं है ?

फिर से जर जर हुयी हैं दीवारें, मेरे गाँव में कोई नहीं है
हँसते बच्चों की आवाज़ को क्या, ऐ खुदा तू तरसता नहीं है ?

फिर से वीराना सा छा  रहा है, और शम्माएं भी बुझ रही हैं
हर शहर आज ईटों का है ढेरा , कोई पंछी क्यूँ दिखता नहीं है ?


(Written in reference to the blood bath going on in Syria)

1 comment:

रविकर said...

सुन्दर ।।

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